शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

किसी के प्यारमें

क्या रखा है जीत में या हार में ।
पड गए हैं जब किसी के प्यार में ।
रूठने लड़ने मानाने का ख़तम,
सिलसिला होता नहीं इकबार में।
दौलते दिल जब तलक है पास में,
फिक्र क्यों कल की करैं बेकार में।
हम अकेले हों कि हों इक भीड़ में,
फर्क कुछ पड़ता नहीं संसार में।
जब नजर ने ही सभी कुछ कह दिया ,
किस लिए फिरते फिरें बिस्तार में।
जानता हूँ चैन उसको भी नहीं,
पर उसे उलझन बड़ी इकरार में।
दे नहीं पाई जहाँ कि दौलतें ,
जो ख़ुशी मुझ को मिली दीदार में।
मिट गए बेशक मुहब्बत में मगर,
नाम अब तक छप रहा है अखबार में.

कभी -कभी

कभी -कभी हम खुद अपने को समझने लगते हैं।
तरह -तरह से टूटे दिल को बहलाने लगते हैं।
यारों की नफरत भी हमको प्यार -वफ़ा लगती है ,
खाकर जख्म हमेशा दिल पर मुस्काने लगते हैं।
आँखों के आंसू की कीमत पत्थर दिल क्या जानें ,
जिनके बिस्तर पर दौलत के सिरहाने लगते हैं।
ऐसे लोंगों को क्या कहिये जिनके चेहरे पर कई चेहरे ,
जो मतलब की खातिर तलुवे सहलाने लगते हैं।
चाहत की क्या करैं तमन्ना हम ऐसे लोंगों से ,
अपनों की सूरत लेकर जो बेगाने लगते हैं ।
रह - रह कर फिर आ जाती है यद् पुराणी बातें ,
कागज पर लिख -लिख कर साडी दोहराने लगते हैं.

हे पत्थर की देवी

बोलो मैं क्या करूँ समर्पित हे पत्थर की देवी।
छाले इतनेहैं कम होंगे तारे अम्बर के भी।
जिसने जीवन होम कर दिया करके पूजा अर्चन,
ओ ! निष्ठुर तुने उसको अभिशप्त जिन्दगी दे दी।
क़दमों में तेरे सर रखकर मैं कितना ही रोया,
पर न पिघला तेरा ह्रदय जलते अश्कों से भी।
क्यों था इतना प्रेम जगाया तूने मेरे दिल में,
कि अब पूंछ रहा हूँ परिचय अपना दर्पण से ही।
जाना ही था दूर अगर तो कुछ इसतरह से जातीं,
अपनी यादों को ले जातीं मेरे जीवन से ही।
अब जब जीना सीख लिया है मैंने तनहा रहकर ,
लेकिन बेगाना कर डाला है मुझको मुझ से ही.

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

जानते हैं

अश्क भी आँखों के पीना जानते हैं।
हम ग़मों के साथ जीना जानते हैं।
पर अंधेरों से कभी डरते नहीं हैं,
हर उजाले का दफीना दफीना जानते हैं।
वो लहू पीकर किसी का जी रहा है,
हम गरीबों का पसीना जानते हैं।
जो नजर से अब तलक ओझल रहा,
धूलमेंबिखरना नगीना जानते हैं।
कामयाबी पर बहुत इतर रहा जो,
किस कदर है वो कमीना जानते हैं।
हम समुन्दर की लिए हैं प्यास लैब पर,
पर पपीहा -बूँद पीना जानते हैं।

कैसा जमाना

आ गया कैसा जमाना देखिये।
दुश्मनों से दोस्ताना देखिये।
नफरतों की जोड़ ली दौलत बहुत,
प्यार का खाली खजाना देखिये।
ढूढ़ते मासूम बच्चे दर-ब-दर ,
खो गया बचपन सुहाना देखिये।
लांघ कर दहलीज बाहर आ गया,
इक छुपा घर का फ़साना देखिये।
मायने जब से रुपये में हो गए,
है कठिन रिश्ते निभाना देखिये।
जो सफेदी पर हजारों दाग हैं,
अब सितारों सा सजाना देखिये.

सपने

मुझे बहुत शौक है देखने का सपने।
वह पराये हों या हों अपने।
मगर मेरे सपने हमेशा ही सच होते हैं,
कुछ मुस्कराते और कुछ रोते हैं ।
कल ही की बात झिलमिलाती रात ।
मैंने अपनी मुट्ठी मैं भींच लिया आसमान,
यदि आपको यकीं न हो तो देखलो
मेरी हथेली पर भींचने के अमिट निशान।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

माना मैंने बहुत दूर hai

माना मैंने बहुत दूर है प्रीतम तेरा घर।
फिर भी तो तुम आ सकते हो जब चाहे चलकर ।
यदि नहीं भी आना चाहो तो इतना करते ,
अपने मीठे बोल सुना देते फोन ही पर।
तुमको देखूं नहीं कभी तो चैन नहीं आता ,
बेचैनी से टहला करती हूँ मैं इधर -उधर।
मुझसे तेरा कभी रूठना सहन नहीं होता ,
हरदम तेरी याद सताती रहती रह -रहकर।
जबसे तुमसे प्यार हुआ मेरी दुनिया बदल गई ,
लेकिन लोग न जाने क्या -क्या कहते हैं जलकर।
तनहा -तनहा बिन तेरे अब जीना मुश्किल है ,
जी में आता साथ न छोडूं तेरा जीवनभर .

जाने कैसी बस्ती है

जाने कैसे लोग यहाँ के जाने कैसी बस्ती है।
चुप - चुप रोये जहाँ मुहब्बत नफरत खुलकर हंसती है।
बंद घरों से ख़ामोशी का शोर सुनाई देता है,
सन्नाटे पर हरदम देखो छाई रहती मस्ती है ।
जाने पहचाने चेहरे भी अनजाने से लगते हैं ,
अपनेपन की एक झलक पाने को आँख तरसती है।
अपनी खुशियाँ अपने गम गुलजार दिखाई देते हैं,
यहाँ रातदिन खुदगर्जी की बारिश खूब बरसती है।
अगर भूलवश खिड़की कोई खुली कहीं रह जाती है,
डाहभरी नजरों की फिरतो होती रहती गश्ती है।
दिल के जज्बातों की कीमत थोड़ी सी भी यहाँ नहीं,
चांदीके सिक्कों की होती जमकर बुतपरस्ती है .

रविवार, 25 अप्रैल 2010

भूले से भी

काश कभी तुम मुझे देखते भूले से भी आकर के।
तुमने कितने दर्द दिए हैं प्यार मिरा ठुकरा कर के'
सारी-सारी रात जगता हूँ तेरी तस्वीर लिए,
और तड़पता हूँ बिस्तर पर उलट-पुलट बल खाकर के।
दिन भर भटका करता हूँ में शहर की सूनी गलियों में,
शायद तुम मिल जाओ मुझको रस्ते में टकराकर के।
हर पल बढ़ता जाता है ये मेरे दिल का पागलपन ,
तुम्हें मनाता रहता है बस सौ- सौ कसमें खाकर के।
मैंने ऐसा कब सोचा था ऐसे भी दिन आयेंगे ,
खुद से ही हम हार चुकेंगे खुद को ही समझाकर के।
मुझसे गर तुम रूठे होते तुम्हें मना लेता भी मैं,
पर तुमने खुशियाँ चाहीं गैरों का साथ निभाकर के.

अपने दिल की बात

अपने दिल की बात जुबां तक लाने भी दो।
आज हकीकत से पर्दा उठ जाने भी दो।
इस दुनिया को प्यार का मतलब क्या समझाना,
जो भी रहे समझती समझे जाने भी दो।
तेरा मेरा मिलन अचानक नहीं हुआ है,
जनम -जनम का रिश्ता है दोहराने भी दो।
इक दूजे के बिना जिन्दगी कटना मुश्किल,
चलते-चलते साथ सफ़र कट जाने भी दो ।
दिल का सौदा नहीं नफा नुकसां सौदा ,
जो पाया, पाया खोया, खो जाने भी दो।
कल जो गुजरा गुजर गया अब क्या लौटेगा ,
कल जो आने वाला है वह आने भी दो।
रुसवाई से बेशक मुझको दर लगता है ,
मगर मुहब्बत में रुसवा हो जाने भी दो.

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

अचानक क्या हुआ है

इस शहर को ये अचानक क्या हुआ है।
खौफ चारोंतरफ फैला हुआ है ।
जिस किसी से पूछिए खामोश है वह ,
आदमी कितना यहाँ सहमा हुआ है ।
खिलखिला कर कल जो चेहरा हंस रहा था ,
आंसुओं से आज वो भीगा हुआ है।
नींद सारी रात अब आती नहीं है ,
मौत का जब से यहाँ डेरा हुआ है।
आदमी पढता नहीं है वो किताबें ,
प्यार को जिसमें खुदा लिक्खा हुआ है।
आग नफरत की ना जाने कब बुझेगी ,
रुख हवा का इस तरफ बदला हुआ है।
अब नहीं महफूज कोई भी यहाँ पर,
बारूद पर हर कोई यहाँ बैठा हुआ है।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

पहचान का खतरा

बढ़ गया है किस कदर पहचान का खतरा ।
शक्ल में इन्सान की इन्सान का खतरा।
काट डाले हैं सभी जो पेड़ जंगल के ,
है जमीं को आज रेगिस्तान का खतरा ।
आदमी फैला रहा जो बिष हवाओं में ,
जीव- जीवन के लिए है जन का खतरा।
जो न बदली आदमी ने आदतें अपनीं ,
सामने होगा खड़ा शैतान का खतरा।
किस तरह नदियाँ हमें अमृत पिलायेंगीं
है जिन्हें खुद आजकल बिषपान का खतरा।
हो रहे हैं रातदिन बिस्फोट धरती पर ,
क्यों न हो बिध्वंस के सामान का खतरा।
है बहुत नाराज अब नीला समुन्दर भी ,
है सुनामी मौत के फरमान का खतरा.

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

प्यास होंठों पै हरदम ही प्यासी रही

प्यास होंठों पै हरदम ही प्यासी रही , इन निगाहों में ठहरी उदासी रही ।
टीस सी एक महसूस होती रही ,बात दिल में चुभी जो जरा सी रही।
हाथ अपना बढ़ा कर जो पकड़ी ख़ुशी ,दरम्यां उँगलियों के हवा सी रही।
मैं मनाता रहा हर तरह से उसे , एक वह थी जो मुझसे खफा सी रही ।
इस कदर चोट पे चोट मिलती रही , चोट ही चोट पै इक दवा सी रही ।
भूल सकता नहीं मैं उसे उम्र भर , मुस्कराहट जो मोनालिसा सी रही ।
इन्तहा उसकी नफरत की ना पूछिए , बददुआ भी मिली तो दुआ सी रही ।
काश कोई बता दे मुझे ये जरा , जिन्दगी किसलिये इक सजा सी रही ।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

तुम्हारे liye

ग़ज़ल बन जा उंगा लब पर कभी जब गुनगुना ओ गे , उजाला बन के फैलूँगा दिए जब तुम जलाओ गे
उदासी होगी आँखों में घटा बन कर में बरसूँगा ,हंसूंगा फूल बन करके कभी जब मुस्करा ओगे ।