सोमवार, 28 जून 2010

होते नहीं फासले कम

वक्त गुजरता जाता होते नहीं फासले कम।
दिल में हर पल टीस उभरती जीते जाते हम ।
याद बहुत आते हैं सारे साथ बिताये पल ,
सोच -सोच कर बातें आँखें हो जतिन हैं नम ।
हर पल तनहा होने का अहसास सताता है ,
बढ़ता ही जाता है होता नहीं जरा भी कम ।
ना जाने क्यों खुदगर्जी इतनी बढ़ जाती है ,
खुशियों के बदले में ले लेते अनचाहे गम ।
अपनी छोटी सी गलती पर अब पछताते हैं ,
रोके होते काश कि हमने अपने गलत कदम ।
कभी मिले गर किसी मोड़ पर फिर इस जीवन में ,
रब से दुया करेंगे वह पल रुका रहे हरदम .

मैंने अक्सर कोशिश की है

मैंने अक्सर कोशिश की है अपने को समझाने की ।
तेरी मेरी हुई मुहब्बत गुजरे हुए ज़माने की ।
मैंने तुझको भुला दिया है दिल से शायद तूने भी ,
बेमतलब हैं पिछली बाएँ फिर से याद दिलाने की ।
चाहे कोई वफ़ा करे या करे जफा भी जीभर के ,
खाकर दिल पर चोट मुझे है आदत बस मुस्काने की ।
अगर चाहता मैं भी तेरा इस्तमाल कर सकता था ,
लेकिन मैंने तुझे इजाजत दी खुद के मिटजाने की ।
ढलते ढलते शाम अचानक तेरी याद सताती है ,
हो जाती है मेरी हालत जैसी होती दीवाने की ।
इल की बेचैनी बढ़ जाती नहीं समझ कुछ आता है ,
यादें जिन्दा रखतीं हैं चाहत होती मर जाने की .

तेरा चेहरा प्यारा लगता है

मुझको तो बस तेरा चेहरा प्यारा लगता है ।
तेरे आगे अपना ये दिल हारा लगता है ।
जब भी तू आता है खुशियाँ साथ चलीं आतीं हैं ,
महका -महका मुझको आलम सारा लगता है ।
किसी बात पर कभी खिलखिला कर हंस पड़ते हो ,
छूटा कोई तेज हंसी का फौव्वारा लगता है ।
प्यार में तेरे देखी है तासीर अजब सी मैंने ,
शबनम की मानिंद मुझे अब अंगारा लगता है ।
सहन नहीं होता है मुझसे कभी रूठना तेरा,
दिल के भीतर मानों फैला अँधियारा लगता है ।
तेरे होठों की खामोशी है बेदर्द बड़ी ही ,
आँखों का हर आंसू तेरा हत्यारा लगता है ।
तेरे बिना मुझे दुनिया की दौलत नहीं पसंद ,
तुझको पा लेना ही मुझको पौ - बारा लगता है .

मैंने तुझ को माफ़ किया है

मैंने तुझको माफ़ किया है तू भी मुझको कर ।
तनहा -तनहा इस जीवन का कटता नहीं सफ़र ।
यह सच है हर बात के अक्सर दो पहलू होते हैं ,
एक साफ दीखता है दूजा आता नहीं नजर ।
प्यार मुहब्बत में दीवारें होती भला कहाँ ,
दरम्यां दिलों के होता है इक खुला हुआ मंजर।
बिन तेरे सीधे रस्ते भी अब टेढ़े लगते हैं ,
समझ नहीं आता है मुझको जाऊं भला किधर ।
बेरुखी प्यार में थोड़ी सी भी होती नहीं सहन ,
ऐसा लगता मानों सीने पर चलते हैं खंजर,
औरों के संग तेरा हंस हंस कर बातें करना ,
जान मिरी ले लेगा मुझको लगता है अक्सर।

अपना ही घर

मेरे दिल को बस समझे अब तू अपना ही घर ।
मैंने तुझसे प्यार किया है तू भी मुझसे कर ।
खाकर कसम दिला सकता हूँ तुझे भरोसा मैं,
तेरा साथ निभाऊंगा यूँ बेशक जीवन भर ।
दुनिया वाले तो कहते हें इनका काम है कहना ,
तेरा दिल कहता है जो सुन नहीं किसी से दर ।
तुझे फैसला खुद करना है भला बुरा है क्या ,
सही वक्त पर सही फैसला कब होता अक्सर ।
खुशियाँ खड़ीं राह में तेरी ,नजर उठा कर देखो ,
मेरा हाथ पकड़कर अपना करदे शुरू सफ़र ।
यूँ घुट -घुट कर जीना तेरा अच्छी बात नहीं ,
अब मुस्काने का मौसम अश्कों का गया गुजर।

रविवार, 27 जून 2010

जीने का हक़ है

सबको अपने तौर तरीकों से जीने का हक़ है ।
इसमें दखलंदाजी करना सच पूछो नाहक है ।
कभी किसी से नहीं मुहब्बत मांगे से मिलती है ,
ये तो कली किसी के दिल में खिलती ही औचक है ।
एकबार खिल जाने पर मुरझाना इसका मुश्किल ,
चाहे कोई कितनी भी कोशिशें करे बेशक है ।
करने वाले प्यार इबादत इसे मानते रब की ,
वर्ना तो इस दुनिया में सब कुछ ही इक नाटक है ।
जिसे मुहब्बत हो जाती है समझो पाली दौलत ,
नहीं कभी कम होती देते -देते जाता थक है ।
बेखबर सभी से फिरता वह अपनी ही मस्ती में ,
दीवानों की तरह सुबह से लेकर शाम तलक है .

तेरे घर के दरवाजे से

तेरे घर के दरवाजे से रोज गुजरता हूँ मैं।
काश कभी दिख जाए तू ये सोचा करता हूँ मैं ।
लेकिन मन मसोस कर अपना रह जाना पड़ता है ,
गहरा सन्नाटा पसरा जब देखा करता हूँ मैं ।
जिस दिन अपनी छत पर तू आई थी नजर मुझे जो ,
तब से दिल तेरे रस्ते में खोजा करता हूँ मैं ।
तुझे पता भी न होगा यूँ मेरी चाहत का कुछ
हर वक्त तुझे लेकर ही क्या -क्या सोचा करता हूँ मैं ।
मुझे बताये कोई किसी से प्यार क्यों होता है ,
अजब पहेली है ये जिसको बूझा करता हूँ मैं ।
जिस दिन तू जुदा हुई है शहर छोड़ कर मुझसे ,
तेरा पता सभी से अक्सर पूछा करता हूँ मैं .

घट जायेगा

जो घटना है घट जायेगा ,समय कोई हो कट जायेगा ,
मौसम सुख जब आएगा ,दुःख का बादल हट जायेगा ।
रातें कितनी भी हों काली ,सुबह सदा सिंदूरी होगी ,
मन में चाहत भर जिन्दा हो ,साध कोई हो पूरी होगी ,
छोटी -छोटी खुशियों से भी ,जीवन का गम घट जायेगा ।
ऐसा तो क़ानून नहीं है ,हर रस्ता मंजिल को जाए ,
फूल खिलें गुलशन में कोई ,और कभी भी न मुरझाये ,
फिर मन में भ्रम क्यों पालें हम ,तिमिर झूठ का छंट जायेगा ।
होता खाली नहीं कभी भी ये आकाश भरा तारों से ,
रुकता नहीं प्रकाश सत्य का ,छनभंगुर यों अंधियारों से ,
धरती का कोना -कोना फिर ,उजियारों से पट जायेगा .

अभ्यास करें

आओ हम तुम अलग -अलग अब होने का विश्वास करें ।

न तुम झूठे न हम झूठे इस सच पर विश्वास करें ।

संबंधों की पुनर्व्याख्या करना बहुत जरूरी है ।

ताकि नाप सकें हम तुम में पनप रही जो दूरी है ,

बंधन खोलें मुक्त रहें क्यों नाहक हुआ उदास करें ।

झूठी कसमें ,झूठे वायदे ,झूठे क्यों संबोधन हों ,

झूठे रिश्ते ,झूठे नाते ,झूठे क्यों अभिनन्दन हों ।

अपनी-अपनी दुनिया में खुश रहने का प्रयास करें ।

लाभ -हानि का जोड़ -घटाना ,लेखा क्यों व्यवहारों का ,

मुंह पर मीठी -मीठी बातें पीछे वार कटारों का ,

कुछ पल सोचें तनहा -तनहा राहें नयी तलाश करें ।

दुरभि संधियाँ ,छल प्रपंच ,षड़यंत्र चाल और छद्म वेश ,

छोड़ रहें निस्पृह रखें न गाँठ जरा भी मन में शेष ,

खुली सोच और खुले विचारों का हम सतत विकास करें ।

निज प्रसिद्धि के संसाधन जैसे चाहें वैसे जोड़ें ,

मन में कलुषित भाव लिए क्यों आहत हम निश्वांश छोड़ें ,
अपने -अपने सपने देखें सपनों में मधुमास करें ।
पर इतना भर ध्यान रहे की जब जब भी हम तुम टकराएँ ,
खुले ह्रदय से मिलें सहज निष्कपट और निर्मल हो जाएँ ,
शब्दों की परिभाषा छोड़ें भावों का विन्यास करें ।
वर्ना दुनिया में कुछ भी रहता स्थिर नहीं सदा ,
अभी वक्त है पास हमारे कल होगा ये यदा कदा ,
क्यों रुक कर इक पल भी सोचें दूरी दिल की पास करें

शनिवार, 26 जून 2010

हम-तुम

जब से हम-तुम बड़े हो गए,प्रश्न हजारों खड़े हो गए .मिलना -जुलना कठिन हो गया ,नियम कायदे कड़े हो गए।
रिश्तों की परिभाषा बदली, बोलचाल की भाषा बदली ,चाल चलन का रंग है बदला ,सोच -समझ का ढंग है बदला,
संदेहों ने आँखें खोली ,कान सभी के खड़े हो गए । जब से ....
पकडे -पकडे हाथ हमेशा ,हम तुम घूमा करते थे ,चाँद -सितारे मुट्ठी में ले -लेकर चूमा करते थे ,
बीते दिन अब सपने लगते ,तस्वीरों में जड़े हो गए ।
कभी ख़त्म न होने वाली ढेरों बातें नहीं रहीं ,तन-मन भीगा करता जिसमें वह बरसातें नहीं रहीं ,
मन की बंजर धरती पर कुछ नक़्शे मुहब्बत पड़े रह गए । जब से....
वही धर्म है ,वही जाति है ,वही प्रेम है ,जिस्म वही है ,परम पिता की हम संतानें लाल खून की किस्म वही है ,
न जाने क्या हुआ सभी को लोग बड़े नक्च्ड़े हो गए .जब से ...
बात -बात पर नुक्ता चीनी ,कदम -कदम पर पहरे हैं ,कौन समझ सकता है दिल में ,जख्म हुए जो गहरे हैं ,
लगता है ज्यों सब के सब बहरे हैं ,या फिर चिकने घड़े हो गए .जब से...
उठी दिलों के बीच दीवारें ,नफरत की चलतीं तलवारें ,प्यार हुआ केवल कहने को ,सपनों में खोये रहने को ,
इस देहरी से उस देहरी तक ,सभी फासले बड़े हो गए ।

गुरुवार, 24 जून 2010

हे पत्थर के राम

बोलो कब तक मौन रहोगे हे पत्थर के राम .मानवता की हत्या का कब होगा पूर्ण विराम ।
सीता ,द्रोपदी और अहिल्या कब तक शोषित होंगी ,अग्नि परीक्षा देकर भी अबलायें दोषित होंगीं ,
पुरुष -न्याय में नारी -मुक्ति का क्या होगा अब नाम ।
एक सृष्टि है एक ही करता एक धर्म उपदेश ,भाषा ,जाति ,धर्म प्रान्त में बंटता जाता देश ,
मानव के निर्दोष लहू का कुछ तो होगा दाम ।
धरती,अम्बर ,चाँद सितारे ,पर्वत ,नदियाँ ,सागर,चला विजय करने को मानव इस युग से उस युग पर,
भौतिकता की दौड़ का आखिर होगा कौन मुकाम ।
कितनी पीड़ा अनाचार या और अधर्म सहना है ,क्या हरदम निर्नाथ गरीबों को बनकर रहना है ,
अथवा तू रचने वाला है फिर कोई संग्राम .

अब सोना बेकार है

जागो -जागो देशवासियो अब सोना बेकार है। दुश्मन छाती पर चढ़ आया हमें रहा ललकार है ।
जात -पांत के भेद मिटा दो कूटनीति की चालों को,मजहब की दीवार गिरा दो और मिटा दो पालों को ,
सबसे पहले देश हमारा फिर कोई दरकार है ।
आखिर कब तक सहन करोगे शत्रु की मनमानी को ,कितनी ठोकर और चाहिए बोलो स्वाभिमानी को ,
अगर अभी भी खून न खौला तो जीवन धिक्कार है।
सर्वोच्च्च सदन है प्रजातंत्र का संसद भवन हमारा ,आकर कोई करे आक्रमण आतंकी हत्यारा ,
जीवित रहने का धरती पर उसका क्या अधिकार है ।
कलम आज से आग लिखेगी भारी लपटों वाली ,दुश्मन के अमानों को अब खाक बनाने वाली ,
शब्द -शब्द कागज़ पर अब होगा बस अंगार है .

एक मात्र हल

मेरी जिज्ञासाओं का तू एक मात्र अब हल है। मैं हूँ बीता वर्तमान तू आने वाला कल है ।

मेरा क्या है थका हुआ टूटा हरा मानव हूँ , इस जीवन का बोझ उठाये चलता फिरता शव हूँ ।

मैं हूँ इक निस्पंद ह्रदय और तू संचरित हलचल है ।

जब भी देखा स्वप्न कोई आँखों में हुई चुभन है ,होठ हँसे जो अनायास तो पाई बस दरकन है ,

मैं मुरझाया हास्य और तू मुक्त हंसी निश्छल है ।

मेरी पीड़ाओं ने जब भी गीत कोई गाया है ,दूर -दूर तक खिंचा हुआ इक सन्नाटा पाया है ,

मैं तो हूँ अवरुद्ध कंठ तू मुखरित हुई गजल है ।

तेरे हर स्पर्श में लगता जैसे जादू -सा है ,जलते जख्मों को मेरे मिल जाती शीतलता है ,

मैं हूँ प्यासी रूह और तू पावन गंगाजल है .

अपनापन

कहाँ तलाश करूँ अपनापन।
ढूंढा कितना भीगी पलकों में ,जीवन की सूनी सड़कों में ,
देख लिया हर मन का दर्पण। कहाँ .....
प्रीतम की बाँहों में देखा ,प्रेमी की आहों में देखा ,
छान लिया खुशियों का उपवन .कहाँ ......
हर पतझड़ और बहारों में ,रवि चंदा और सितारों में ,
पाया इक सपना सा निर्जन .कहाँ ....
मंदिर-मस्जिद गुरुद्वारों में ,गंगा -जमुना की धारों में ,
मिटी नहीं इक मंकी उलझन .कहाँ...
प्रकृति के हर कण में देखा ,प्रलय के प्रतिछन में देखा ,
सुना बहुत है करुना क्रंदन .कहाँ .....
धन वैभव का अर्जन देखा ,परमाणु का सृजन देखा ,
देखा दोनों का पागलपन .कहाँ ....
यों खोजा कई हजारों में ,आयु के तीन कगारों में ,
पाया बस केवल सूनापन.कहाँ...
सांसों के सरगम में ढूंढा ,म्रत्यु के हर ख़म में ढूंढा ,
गिनी बहुत हैं दिल की धड़कन .कहाँ ...

बुधवार, 23 जून 2010

हमारा गम

तुम्हें तुम्हारी ख़ुशी मुबारक हमें हमारा गम .तुमको फूलों वाला हमको काँटों का मौसम ।
ये तो अपनी अपनी किस्मत दोष किसी का क्या है ,तुम्हें मिले उजियारे हमने अँधियारा पाया है ,
हंसी तुम्हारे होंठों पर है नयन हमारे नम.
हाथों की रेखाओं में जो विधि ने लिखी कहानी ,हमने वही सुनाई हमको जो थी पड़ी सुनानी ,
पास हमारे भी ना थे यों अफ़साने कुछ कम ।
ये तो जग की रीति निराली दुःख में दुःख देता है,आँखों में सपने भर कर फिर खुशियाँ हर लेता है ,
फिर भी थाली वाला चंदा नहीं किसी से कम ।
जिन्हें चाहने से मिल जाती है अपनी मंजिल,राहें आंसां हो जाती हैं आयें भी मुश्किल,
वक्त अचानक आकर मुट्ठी में जाता है थम ।
पर मनचाहा कब मिलता है दुनियां में सबका ,मिलना इक भ्रम भर होता है धरती से नभ का ,
परछाईं का पीछा करना व्यर्थ गंवाता श्रम ।
चाँद -सितारे छूने वाले इक दो ही होते हैं ,बाकी सबके सब तो केवल अवरोही होते हैं ,
जिनके हाथ जला चुकती है मामूली शबनम ।
जिस दिन मेरे गीत फिजायें खुद -बा -खुद गाएंगीं ,उस दिन घर के दरवाजे तक खुशियाँ चल आयेंगीं ,
खुशबू को स्वीकार हुई कब पायल की छम-छम .

मंगलवार, 22 जून 2010

तुझ से दिल की बात कहूं

बहुत दिनों से सोच रहा हूँ तुझ से दिल की बात कहूं । तेरे बिना नहीं कटते हैं अब तो ये दिन रात कहूं ।
तू दिखलाई नहीं अगर दे दिल उदास हो जाता है ,तेरी एक झलक दे जाती खुशियों की सौगात कहूं ।
कैसे -कैसे ख्याल हजारों मुझको घेरे रहते हैं ,दिल ही दिल में घुट कर रह जाते हैं जज्बात कहूं ।
अहसास जरा भी होता तुमको मेरी चाहत का ,मुझ पर क्या क्या गुजरी है सब के सब हालातकहूं ।
अपने अश्क छुपाकर हँसना कितना मुश्किल होता है ,तुझसे मिलकर आँखों से होती है बरसात कहूं.

प्यार भरी बीती बातें

प्यार भरी बीतीं बातें क्यों इतना मुझे रुलातीं हैं .दूर अगर जाना चाहूं तो ये नजदीक बुलातीं हैं ।
आने वाले कल पर इनका इतना गहरा साया है ,कुछ भी नजर नहीं आता अब सब राहें धुन्धलातीं हैं ।
गुजरा हुआ जमाना कहते नहीं लौट के आता है ,मगर करूँ क्या इनका जो खुद को फिर -फिर दोहरातीं हैं ।
साथ वक्त के बड़े -बड़े यूँ जख्म सभी भर जाते हैं ,लेकिन ये बातें हैं जो इन बातों को झुठ्लातींहैं ।
हर बार उलझकर रह जाता हूँ मैं अनबूझी पजलों मैं , जितना ही सुलझाता हूँ ये उतना ही उलझातींहैं ।
मैं तो इनसे आजिज आया ऐसी भी तरकीब नहीं ,जितना इन्हें भुलाना चाहो उतना याद दिलातीं हैं .

कम से कम इकबार प्रभू

बोलो कबतक सहन करें हम मंहगाई की मार प्रभू .तुम्ही निकालो राह नई कम से कम इक बार प्रभू ।
अब अतिथि से नहीं पूछता मेजबान भी चाय कभी ,शक्कर जब से हुई पचास की चाय हुई दुशवार प्रभू ।
नंगों भूखों का क्या कहना सहमे पैसे वाले भी ,जाने कैसे चला रहें हैं लोग बड़ा परिवार प्रभू ।
नेताओं के रोज बयान आते हैं अक्सर टीवी पर ,सुबह शाम लगते हैं इनके देखो तो दरबार प्रभू ।
अखबारों में होड़ लगी है खबर मसालेदार छपे ,मंहगाई पर बड़े -बड़े लेखों की है भरमार प्रभू ।
एक तरफ तो कहते नेता भ्रष्टाचार मिटायेंगे ,और दूसरी तरफ लगाते नोटों के अम्बार प्रभू ।
प्रजातंत्र की परिभाषा में आम आदमी भ्रमित है ,सरकारों की प्रजा है या प्रजा की सरकार प्रभू ।
गूंगे ,बहरे लोग हो गए और आँख से अंधे भी ,अब तो इनको आस तुम्हारी कब लोगे अवतार प्रभू.

सोमवार, 21 जून 2010

तुझ तक दिल की बात प्रिये

आखिर कैसे मैं पहुँचाऊँ तुझ तक दिल की बात प्रिये .इसी सोच मेंदिन कटता है इसी सोच में रात प्रिये ।
जब से तुझको देखा मैंने मिलने की इक बेचैनी है ,तुझको लेकर मचल रहे हैं कितने ही जज्बात प्रिये ।
तेरी सूरत में ना जाने कैसा दिलकश इक जादू है ,जिसको देखे बिना नहीं होती दिन की शुरुआत प्रिये ।
तेरी तुलना भले चाँद से दुनिया वाले करते हों ,मगर करूँ मैं तेरी तुलना मेरी क्या औकात प्रिये ।
काश तरस आता तुझको यूँ मुझ पर क्या क्या गुजरी है ,छुपे नहीं होते तुझसे बेशक मेरे हालत प्रिये ।
तेरा औरों के संग हंस हंस कर बातें करना हरदम ,तुझे खबर क्या मेरे दिल पर होते हैं आघात प्रिये ।
वैसे मुझको पसंद नहीं हैं अश्क बहाना बेमतलब ,लेकिन तेरी याद शुरू कर देती है बरसात प्रिये .

एक पल के लिए

याद जाती नहीं एक पल के लिए .भूल जाऊं उसे सिर्फ कल के लिए ।
छू गया था बदन से बदन भर जरा ,इक गजल मिल गई यूँ गजल के लिए ।
मुस्कराती थी वो इस तरह क्या कहूं ,माफ़ उसकी सजा हर कतल के लिए ।
चाँद के अक्श को चाँद कह दो भले ,अक्श कैसे कहूं मैं असल के लिए ।
है बहुत खूबसूरत खुदा की कसम ,रस्क होने लगे खुद कँवल के लिए .
खाब था या हकीकत परेशान हूँ ,किस तरह हल करूँ इस पजल के लिए ।
है यही इश्क ग़ालिब बता दो जरा ,सोच में हूँ अभी तक अमल के लिए .

मुस्कान दिखा

मुझसे करके प्यार नहीं अहसान दिखा। जो तू सच्चा है सच्ची पहचान दिखा ।
वैसे तो तू रहता है मेरे दिल में, मगर मुझे ना तू बनकर के मेहमान दिखा ।
कहने को तो प्यार नाम लुटने का है ,मगर लूटकर मेरे ना अरमान दिखा ।
तेरा प्यार इबादत जैसा मान लिया ,मैं भी सजदा करूं भगवान् जरा दिखा ।
सच है लोग संवर जाते हैं प्यार जिन्हें ,जानबूझ कर ना बिखरा सामान दिखा ।
मुझे सताकर तुझको क्या मिल जाएगा ,अपने दिल पर अल्फाजों के चला तीर कमान दिखा ।
अगर तुझे है बहुत भरोसा अपने ऊपर ,आँखों में आंसू लब पर मुस्कान दिखा .

पाने की खुशियाँ

कभी मिलीं पाने की खुशियाँ कभी मिला खोने का गम .हरदम साथ रहा है मेरे प्यार तुम्हारा कदम -कदम
मैंने पीछे नहीं कभी भी मुड़कर देखा माजी को ,भूल गया मैं पाकर तुमको अपनों ने जो किये सितम ।
किया भरोसा जिन लोगों पर मैंने खुद से भी बढकर, जैसे शीशा टूटा करता टूट गया हर एक भरम ।
लोग तोड़ते रहे हमेशा वादा मुझसे कर कर के ,मैं तो रहा निभाता केवल खाई अपनी कभी कसम ।
जितना ही मैं सुलझाता हूँ उतना और उलझते हैं ,ना जाने इस जीवन में अब कितने और हैं पेंच -ओ -ख़म ।
इसी लिए तुमसे है मेरी एक गुजारिश छोटी सी ,मुझसे ना तुम कभी रूठना कैसा भी हो वक्त सनम .

इतना भी क्या डरना

आखिर इतना भी क्या डरना इस बेदर्द ज़माने से.जो तुम मिलने आ ना पाओ मुझसे किसी बहाने से ।
दुनिया की तो रीति निराली प्यार पे पहरे बिठलाती है ,इसे रही है एक दुश्मनी हरदम ही दीवाने से ।
इसको दो दिल प्यार में डूबे रास कभी कब आये हैं ,इसे नहीं फुर्सत मिलती दरम्यां दीवार उठाने से ।
तोड़ के बंधन बाहर निकलो बंद अँधेरे कमरे से ,तुमको कुछ न मिलने वाला घुट -घुट कर मर जाने से ।
मंजिल तेरे इन्तजार में जाने कब से बांह पसारे,तुमको खुशियाँ मिल जायेंगीं आगे कदम बढाने से ।
तकलीफें कब कम होतीं हैं हार मान कर तकलीफों से ,इन पर जीत हुई है हासिल हरदम ही मुस्काने से ।
तुम चाहो तो बुझ सकती है प्यास लबों की छूकर लब ,आजतलक जो बुझ न पाई साकी सागर पैमाने से ।
सभी किताबें ही कहतीं हैं प्यार मुहब्बत रब का नाम ,न जाने क्यों बड़ी दुश्मनी जाहिद को दीवाने से ।
बिना किये दीदार चाँद का ईद भला कब होती है ,ईद मिरी भी हो जाएगी तेरे चाट पर आने से .


बोझ भला क्यों ढोता रे

जितना प्यार किया था उससे उसको भी तो होता रे .वरना तन्हाई मेंचुपके चुपके दिल क्यों रोता रे ।
जज्बातों का सागर दिल में अगर हिलोरें लेता है ,उभर नहीं पता है कोई लगा लिया जो ग़ोता रे ।
पाप पुण्य का सदा फैसला ऊपर वाला करता है ,मगर वही काटा इंसा ने अक्सर वह जो बोता रे ।
कैद हुआ दिल जबसे मेरा प्यार के उसके पिंजरे में , अक्सर नाम उसी का लेता जैसे लेता तोता रे ।
थोडा सा गम बांटा होता जैसे खुशियाँ बांटी थीं ,वर्ना सारी उमर अकेले बोझ भला क्यों ढोता रे .

रविवार, 20 जून 2010

पास होना चाहिए

दूर रह कर भी हमेशा पास होना चाहिए ।प्यार पर अपने बहुत विश्वास होना चाहिए ।
यह जरूरी तो नहीं जो चाहते हैं वो मिले, जो मिला पाकर उसे उल्लास होना चाहिए।
यह रवायत है पुरानी प्यार मेंखोकर सभी ,बस लबों पर मुस्कराहट रास होना चाहिए।
है बहुत मुश्किल अकेले काटना ये जिन्दगी, पर किसी की याद भी तो ख़ास होना चाहिए।
टूट जाता है जरा सी चोट से शीशा -ये -दिल,दोस्तों को कम से कम अहसास होना चाहिए।
फिर कठोती में निकल सकती है गंगा आज भी ,आदमी दिल से मगर रैदास होना चाहिए.

गुरुवार, 17 जून 2010

कितना परेशां था

मैं कितना परेशां था जब तक ना मिले थे तुम ।
इक गर्दिशे दौरां था जब तक ना मिले थे तुम ।
हिज्र की रातें थीं तन्हाई का आलम था ,
हर खाब बियाबां था जब तक ना मिले थे तुम ।
कब से भटक रहा था मजहब के जंगलों में,
राहें ना रहनुमां था जब तक ना मिले थे तुम ।
हर ओर बंदिशें थीं पहरे थे दायरे थे ,
ये प्यार बेजुबां था जब तक ना मिले थे ।
अपनी ही शख्सियत से अब तक था मैं नावाकिफ ,
हिन्दू या मुसलमां था जब तक ना मिले थे तुम ।
आया था किस जगह से जाना है किस जगह को ,
बातों का कारवां था जब तक ना मिले थे तुम

तेरे पथ में

जाने कब से तेरे पथ में दो नैनों के दीप जलाये।
आएगा तू जरूर एक दिन बैठी हूँ यूँ आस लगाये ।
रोज पूछती हूँ सूरज से शायद तेरा संदेशा हो ,
पर अंधियारे में छुप जाता दुःख से मेरे शीश झुकाए ।
कहीं बैठ न जाऊं रोने मैं भावुकतावश अपना दुःख,
इसी लिए तो शशि फिरता है चेहरा अपना खूब छुपाये ।
कभी -कभी जब तरुवर हिलते लगता प्रीतम आने वाले ,
किन्तु पवन भी धीमा -धीमा सुनती हूँ आहें भर जाए ।
कितने ही मौसम बदले पर तू निष्ठुर ना आया ,
पागलमन को आखिर कोई तो आका समझाए .
काँप रही हूँ पीत क्षीण हो पड़ता आँचल भी झीना ,
ऐसा न हो तेरी बाट में जीवन ही चुकता हो जाए ।

रखे हाथ पर हाथ

रखे हाथ पर हाथ भला क्या बैठे रहना .सूनी -सूनी दीवारों को तकते रहना ।
खोलो घर के द्वार निकल कर बाहर आओ ,चले जहाँ तक राह वहां तक चलते जाओ ,
नई ऊर्जा सांस -सांस मैं भरते रहना ।
घोर अँधेरे की अपनी भी हद होती है , जहाँ उजाले की फैली सरहद होती है
निसंकोच होकर बस आगे बढ़ते रहना ।
मंजिल उसको मिली जिसे चाहत मंजिल की ,जिसने हरदम सुनी बात अपने ही दिल की ,
मौसम तो मौसम है रोज बदलते रहना ।
दरवाजे तक खुशियाँ कब आतीं हैं चलकर ,इन्हें मनाना पड़ता कुछ आगे बढ़ कर ,
इनके लिए हमेशा ही सहते रहना ।
इस दुनिया ने सदा उसे ही नमन किया है ,जिसने अपनी इच्छाओं का दमन किया है ,
इधर -उधर की बातों से बस बचते रहना ।
सब को इक मौका मिलता है यूँ जीने का ,होंठों पर मुस्कान लिए आंसू पीने का ,
धीरे -धीरे कदम कदम बस बढ़ते रहना .

करते रहने से

अभिव्यक्ति देना बेहतर है चिंतन भर करते रहने से। क्रियाशील रहना बेहतर है मंथन भर करते रहने से ।
हर रचना इतिहास रचे ही रचना का उद्देश्य नहीं ,रचना का रचना बेहतर है सपने भर रचते रहने से ।
पांवों को गंतव्य मिले ही पथ का ऐसा पंथ नहीं ,कुछ दूर भटकना ही बेहतर है क़दमों को गिनते रहने से ।
प्रयासों की सार्थकता में परिवर्तन प्रतिभूति नहीं ,समाधान करना बेहतर है आशंका करते रहने से ।
शब्द सदा ही व्यर्थ जहाँ संवाद मौन की भाषा है ,भावों को पढना बेहतर है परिभाषा करते रहने से ।
संबंधों के संयोजन में प्रेम तत्त्व ही प्रयोजन हा ,आत्मसात करना बेहतर है ,विश्लेषण करते रहने से।
पीड़ा का अनुवाद सदा आंसू में करना ठीक नहीं ,पत्थर हो जाना बेहतर है मन ही मन गलते रहने से .

क्या रखा है

क्या रखा है जीत में या हार में .पड़ गए हैं जब किसी के प्यार में ।
रूठने लड़ने मनाने का ख़त्म ,सिलसिला होता नहीं इक बार में ।
दौलते दिल जब तलक है पास में ,फिक्र क्यों कल की करें बेकार में ।
हम अकेले हों क़ि हों इक भीड़ में ,फर्क कुछ पड़ता नहीं संसार में ।
जब नजर ने ही सभी कुछ कह दिया ,किसलिए फिरते फिरें विस्तार में ।
जानता हूँ चैन उसको भी नहीं ,पर उसे उलझन बड़ी इकरार में ।
दे नहीं पाई जहाँ कीदौलतें ,जो ख़ुशी उसको मिली दीदार में ।
मिट गए बेशक मुहब्बत में मगर ,नाम अब तक छाप रहा है अखबार में .

अपना घर

जिसका अपना घर होता है ,उसे भला क्या डर होता है।
जब चाहे वह आये जाए ,खुला हुआ जो दर होता है ।
उसे नींद आ ही जाती है ,कैसा भी बिस्तर होता है ।
वह खुद ही होता है मालिक ,खुद ही तो नौकर होता है ।
चाहे हालत कैसी भी हो ,सीधा उसका सर होता है ।
वह नाचे या शोर मचाये ,खुद की मर्जी पर होता है ।
पर्दा हो या बेपर्दा हो ,भीतर का मंजर होता है
नहीं भटकता फिरता है वह ,जैसा इक बेघर होता है ।
इसी लिए इक घर का सपना ,लिए आदमी हर होता है ।
चाँद ,ईद का कहीं न निकले ,पर निकला छत पर होता है .

फिर वहीँ पै आ गया

कल जहाँ से था चला अब फिर वहीँ पै आ गया । ढूंढ़ता था मैं जिसे वो खुद के भीतर पा गया ।
मेरे जेहन में इरादा आसमां छूने का था ,पर सफ़र की धूप का टुकड़ा मुझे झुलसा गया ।
मुझको ताकत का पता वक्त की उस दिन चला ,बोलते ही बोलते जिस दिन जरा हकला गया ।
ये हकीकत यकबयक थी मेरे आगे खुल गई , दूसरों के मैं बनिस्पत खुद से धोखा खा गया ।
मैं समझता था जिसे अपनी मुहब्बत का सिला ,हाथ में जब कुछ न आया सर मिरा चकरा गया ।
एक मुद्दत से भटकता फिर रहा था प्यास ले ,चाँद आंसू क्या पिए लब पर समुन्दर आ गया ।
ये उदासी ,मुस्कराहट ,जिन्दगी का फलसफा , फूल मुरझाया कोई तो सब समझ में आ गया .

कब तक साथ चलें

भूले बिसरे अफसानों से कब तक साथ चलें .आखिर हम तुम बेगानों से कब तक साथ चलें ।
मैखाने में बैठे हैं हम लब पर प्यास लिए, खाली- खाली पैमानों से कब तक साथ चलें ।
ऐसा हँसना भी क्या हँसना पलकें नम हो जाएँ ,फीकी -फीकी मुस्कानों से कब तक साथ चलें।
पंख लगा कर उड़ना चाहा हम तुम दोनों ने ,झुलसे -झुलसे परवानों से कब तक साथ चलें।
अपने हाथों तोड़ के अपना मंदिर चाहत का, उजड़े -उजड़े बुतखानों से कब तक साथ चलें ।
जनम -जनम के रिश्ते थे यों हम तुम दोनों में , अपने घर में मेहमानों से कब तक साथ चलें ।
भटकन ही भटकन है जिसमें मंजिल कहीं नहीं ,रेगिस्तानी मैदानों से कब तक साथ चलें ।
दूर -दूर तक जिसका कोई नाम - औ -निशां नहीं ,माजी की गुम पहचानों से कब तक साथ चलें .

बुधवार, 16 जून 2010

तेरे लिए

गजल बन जाऊंगा लब पर कभी जब गुनगुनाओगे .उजाला बन के फैलूँगा दिए जब तुम जलाओगे।
उदासी होगी आँखों में घटा बन कर मैं बरसूँगा ,हसूंगा फूल बनकर के कभी जब मुस्कराओगे।
भंवर के बीच में होगे मैं साहिल बनके थामूंगा ,बहारें बन के आऊँगा कभी जब गम सुनोगे ।
तुम्हें गर दिन पड़ें कुछ कम उमर अपनी मैं दे दूंगा ,बनूँगा सेज फूलों की कभी कांटे सजाओगे ।
लहू से अपने खींचूंगा तेरे अरमां की तस्वीरें ,ज़माने भर के रंगों से बना गर तुम ना पाओगे ।
सितारा बन के चमकूंगा तेरी किस्मत के गर्दिश में, छुपा लूँगा तुझे दिल में मेरी जानिब जो आओगे .

मंगलवार, 15 जून 2010

खबर

एक बार भी ली ना तुमने अब तक मिरी खबर .ऐसा लगता तुम्हें भा गया है अजनबी शहर ।
तुमको लेकर मेरे दिल में नहीं जरा भी शक , मगर करूं क्या मैं इस शक का जिसका तेज जहर ।
तुमतो कहते थे इस पल भी जुदा नहीं होंगे ,मगर जुदाई का ये कैसा टूटा बड़ा कहर ।
कहाँ रोज हो जाता था दीदार तुम्हारा मुझको ,अब तो खाबों में भी आती सूरत नहीं नजर ।
इन्तजार में ख़त के रहता मैं बेचैन तुम्हारे ,मगर डाकिया डाक बांटता रहता इधर उधर ।
इतना ही था मिलन हमारा समझाउं कैसे ,तुम आकर समझाओ दिल को होगा बहुत असर .

क्या मजबूरी है

तुम्ही बताओ आखिर ऐसी क्या मजबूरी है .जो तुमने कायम कर रक्खी इतनी दूरी है।
मुझे देखकर पहलेकितना तुम शर्मातीं थीं ,ना गालों पर शर्म फैलती अब सिन्दूरी है।
जब भी एक नजर भर कर तुम मुझे देखतीं थीं ,एक नशा तारी हो जाता था सिन्दूरी है।
तुमसे बातें करना कितना अच्छा लगता था ,घंटों बातें करते लगता बात अधूरी है ।
तुमने ही तो हाथ पकड़ कर कसम दिलाई थी ,साथ -साथ मरने जीने की भी मंजूरी है ।
दुनिया का क्या है कहने को कुछ भी कहती है,उसकी फितरत रही हमेशा बड़ी फितूरी है ।
मुझको ये मालूम कहाँ था कुंदन बनने को ,सोने का अग्नि में तपना बहुत जरूरी है .

रविवार, 13 जून 2010

अक्सर उससे

मैंने अक्सर कोशिश की है अपने को समझाने की। तेरी मेरी हुई मुहब्बत गुजरे हुए ज़माने की ।

मैंने तुझको भुला दिया है दिल से शायद तूने भी , बेमतलब है पिछली बातें फिर से याद दिलाने की ।
चाहे कोई वफ़ा करे या करे जफा भी जी भर के ,खाकर दिल पर चोट मुझे है आदत बस मुस्काने की ।
अगर चाहता मैं भी तेरा इस्तेमाल कर सकता था ,लेकिन मैंने तुझे इजाजत दी खुद के मिट्जाने की।
ढलते ढलते शाम अचानक तेरी याद सताती है ,हो जाती है मेरी हालत जैसी होती दीवाने की।
दिल की बेचैनी बढ़ जाती नहीं समझ कुछ आता है ,यादें जिन्दा रखतीं हैं चाहत होती मरजाने की.

खूब सूरत लड़कियां

मुस्करातीं हैं बहुत जब खूबसूरत लड़कियां .वह गिरातीं हैं जवां दिल पर हजारों बिजलियाँ।

राह चलते लोग भी पीछे पलट कर देखते, यकबयक कमसिन उमर मैं ये बजातीं सीटियाँ ।

आसमानों की तरफ रुख कर रहीं हैं इस तरह ,फडफडा कर पंख उड़तीं हैं कभी जब तितलियाँ ।

रूढ़ियों के तोड़कर बंधन सभी औ दायरे ,ये फिजां में घोलतीं हुई फिर रहीं हैं मस्तियाँ ।

ये जमाना साँस रोके तक रहा है उस तरफ ,जा रहीं हैं नक्श -ए -पा अब इन्हीं के हस्तियाँ ।

वक्त की रफ़्तार भी बेचैन है अब raat दिन, तेज उससे भी चली हैं आजकल की लड़कियां।



शनिवार, 12 जून 2010

सच सच मुझे बताना

सच -सच मुझे बताना मेरी याद तुझे भी आती है ।
जितना मुझे सताती है क्या इतना तुझे सताती है।
शाम ढले इक बेचैनी सी मुझ पर तारी होती है,
नहीं समझ आता कुछ भी जिस दम तबियत घबराती है ।
तुझसे होकर जुदा हुई है हालत ऐसी मेरी ,
जैसे पानी बिना तड़पती मछली की हो जाती है ।
नहीं जरा भी अच्छा लगता मुझे भरी महफ़िल मैं ,
हर सूरत मैं तेरी सूरत बस मुझे नजर आती है ।
सुबह से लेकर शाम ढले तक यही सोचता रहता हूँ,
क्यों सुबह तरसाती है क्यों शाम बहुत तडपाती है .

तेरे बिना

तेरे बिना मुझे लगता है बहुत अकेलापन।
नहीं कहीं भी चैन जरा सा पाता है ये मन ।
मुझे अजनबी सी लगती है अपनी ही सूरत ,
जब भी देखा करता हूँ मैं भूले से दर्पण ।
अपनी ही परछाईं से मैं घबरा जाता हूँ ,
इक वीराना सा लगता है घर का ही आँगन ।
दवाजे पर दस्तक देती कभी हवा आकर ,
दिल -दिमाग में होने लगती अनजानी सन सन ।
तेरी तस्वीरों से बातें करता रहता हूँ ,
हर पल बढ़ता ही जाता मेरा दीवानापन ।
इंतजार है अब बस तेरे आने का मुझको ,
वर्ना मेरी सांसें कर देंगी देखो अनशन .

बुधवार, 9 जून 2010

मत घोलिये

मत घोलिये आब ओ हवा में रात दिन काला जहर.कि साँस भी लेना हो मुश्किल आदमी को साँस भर।
जख्मी हुईं जिस रोज से ओजोन की मोटी परत,महसूस होती चांदनी भी जून की ज्यों दोपहर।
भूकंप.सूखा,बाढ़ ,रोगों की नई पैदायशैं, हर दिन बढीं आतीं हैं जानिब गाँव हो या हो शहर।
बनते रहे मरुथल हरे जंगल मुसलसल काटकर ,सोचो जरा होगा हमारा हश्र क्या कुछ है खबर।
रोकी नहीं जो गर अभी बढती मशीनी सभ्यता ,इक दिन यक़ीनन ढायगी सब पर क़यामत का कहर।
बारूद पर बैठा हुआ इन्सान जो सम्हला न तू ,हर तरफ शमशान होंगे या कि कब्रिश्तान भर।

काश कभी तुम

काश कभी तुम मुझे देखते भूले से भी आकरके .तुमने कितने दर्द दिए हैं प्यार मिराठुकराकर के।
सारी सारी रात जागता हूँ तेरी तस्वीर लिए, और तड़पता हूँ बिस्तर पर उलट पुलट बल खाकर के।
दिन भर भटका करता हूँ मैं शहर की सूनी गलियों में, शायद तुम मिल जाओ मुझको रस्ते में टकराकर के।
हर पल बढ़ता जाता है ये मेरे दिल का पागलपन ,तुम्हें मनाता रहता है बस सौ सौ कसमें खाकर के।
मैंने ऐसा कब सोचा था ऐसे भी दिन आयेंगे , खुद से ही हम हार चुकेंगे खुद को ही समझकर के।
मुझसे गर तुम रूठे होते तुम्हें मना लेता भी मैं, पर तुमने खुशियाँ खोजीं गैरों का साथ निभाकर के.

तजुर्बा

रोते रोते मुस्काने का मुझे तजुर्बा है .सब कुछ खोकर भी पाने का मुझे तजुर्बा है ।
जब भी मुझको ठोकर दी बेरहम ज़माने ने ,गिरते गिरते थम जाने का मुझे तजुर्बा है।
अपनों ने जब गैर समझ कर ठुकराया मुझको ,बेगानों के अपनाने का मुझे तजुर्बा है।
मेरे प्यार का सिला मिला जब मुझको तन्हाई ,अपने दिल को बहलाने का मुझे तजुर्बा है।
चूर चूर होते देखा जो अपने खाबों को ,तभी अचानक जग जाने का मुझे तजुर्बा है ,
थोड़ी सी खुशियों के बदले अंगारे लेकर .तपकर कुंदन बन जाने का मुझे तजुर्बा है.