इक पिंजरे में कैद परिंदे को उसकी आज़ादी तो हो .
हर बच्चे को उसका बचपन वृद्धों की इक लाठी तो हो .
उफन रही नदिया के बेशक नहीं किनारे होते हैं ,
लेकिन हर यौवन का अपना सच्चा जीवन साथी तो हो .
ऊंचे -ऊंचे महल अटारी ,ढेर कीमती दौलत के ,
नहीं सभी को मिलें ,जिन्दगी इक सीधी सादी तो हो .
माना तिल धरने को जगह नहीं जरा सी शहरों में ,
लेकिन उजड़े हुए गाँव में बस्ती इक आबादी तो हो .
पूंजीपति सब निगल रहे हैं हर प्राकृतिक संसाधन को ,
चाँद सितारे ,पर्वत नदिया आखिर कुछ सरकारी तो हो .
जीने में आशंका कितनी मरने में विश्वास बड़ा है ,
भविष्य अँधेरा ही हो जाए इतनी ना बेकारी तो हो .
एक तरफ रोटी के लाले ,गेहूं सड़ता मैदानों में ,
खून पसीना धरती -पुत्रों का बहता ना माटी तो हो.
धरे हाथ पर हाथ भला क्यों बैठे पत्थर के बुत -से तुम ,
इक दिन दुनिया सुन लेगी आवाज गले तक आती तो हो .
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