सोमवार, 10 मई 2010

इक जमाना

लगता है इक जमाना हरपल तिरे बिना ।
इक साँस भी है जीना मुश्किल तिरे बिना ।
पूछा है आईने ने मुझसे मैं कौन हूँ ,
कुछ भी नहीं है मेरा परिचय तेरे बिना ।
दम तोडती हैं लबपर मायूस हो तबस्सुम ,
आवाज में दरारें पड़गईं तिरे बिना ।
महफ़िल में सितारों की उजालों के कहकहे,
अंधेरों ने छीन लीं हैं खुशियाँ तिरे बिना।
मझदार में है कश्ती डूबेगी मेरी तै है,
कैसे मिलेगा साहिल मुझको तिरे बिना।
लम्बा सफ़र है कितना फिसलन भरी उमर का,
कैसे करूँगा पूरा तनहा तिरे बिना .

अपना दर्द सुनाने निकले

औरों को दुःख देने वाले अपना दर्द सुनाने निकले।
घेर लिया जब अंधियारों ने दीपक बुझे जलाने निकले।
औरों के किस्से चटखारे ले लेकर जो कहते थे,
उनके अपने घर से ढेरों मजेदार अफसाने निकले।
तन्हाई से घबराये तो भीड़ में जाकर बैठ गए,
जब लोगों के दिल में झाँका अंदर से वीराने निकले।
चिंगारी को खुद भड़काकर शोलों में तब्दील किया,
लपटों ने जब घेर लिया घर बाहर आग बुझाने निकले।
भोली -भली सूरत लेकर जो औरों को ठगते थे ,
इकदिन ऐसा धोखा खाया थाने रपट लिखने निकले।
सबकी नाव डुबाने वाले वक्त आखिरी जब आया तो ,
इक कागज की कश्ती लेकर खुद को पार लगाने निकले.