गुरुवार, 16 सितंबर 2010

९०--रामायण

         ( २१ )
 दोपहरी   के बाद ही आखिर पुष्प विमान अवध में उतरा ,
लखन लाल और राम चन्द्र को सबने उसमें बैठा देखा ,
हाथ लगाने से हो मैली साथ ही बैठी राम की सीता ,
सुग्रीव और विभीषण अंगद जामवंत नल नील समीता ,
सबक खरामी रंग पे आई वादे सबा ने भी पर तौले ,
गुलशन गुलशन महक रहा था कलियों ने भी घूघट खोले .            

                 ( २२ ) 
पुष्प विमान जमीं पर उतरा हौले हौले धीरे धीरे ,
राम चन्द्र जी सबसे पहले उस विमान से बाहर निकले ,
उनके पीछे ठुमक ठुमक करती निकली राम की  सीते ,
वानर सेना बाद में आई लखन लाल जी पहले निकले ,
तीनों माताओं को बढ़ कर तीनों ने फिर शीश नवाया ,
आशीर्वाद गुरु का लेकर भरत चरत को गले लगाया .
                 ( २३ ) 
कौशल्या कैकेई सुमित्रा ने फिर खोया धन पाया ,
भरत चरत दोनों की आखिर संवर गई ही नरजिस काया ,
पहले  आँखें चार हुईं जब नजरों ने था धोखा खाया ,
लेकिन देखा गौर से ज्यों ही तीनों ने सावन बरसाया ,
बच्चे बूढ़े पुरुष और नई देख रहे थे झूम रहे थे ,
इतना था तूफ़ान खुशी का धरती अम्बर घूम रहे थे .
                  ( २४ ) 
घूम मचाते हँसते गाते इसी अरह से कुछ दिन बीते ,
राज तिलक फिर हुआ राम का धूम धाम से बहुत शान से ,
राम राज में शेर और बकरी एक घाट पर पानी पीते ,
उनकी कोई कमी नहीं थी दूध और घी के डराया बहते ,
सच्चे सुच्चे लोग थे सारे दान की महिमा सबने जानी ,
राम राज में हो जाया था दूध का दूध पानी   का पानी .
                    ( २५ ) 
तू ही मेरा मात पिता तू ही मेरा बंधु भगवन ,
ऊ अविनाशी दुःख कका नाश तुझसे कटते मोह के बंधन ,
तू ही मारे तू ही तारे तू ही मेरा है जीवन धन ,
तेरे बल पर मैंने भी तै करली समपूरन रामायण ,
मेरे डाटा मेरी झोली जैसे भर दी सब की बहरिओ ,
जैसी कृपा मुझ पर की है वैसी कृपा सब पर करिओ .
   

८९-रामायण

    ( १७ ) 
नगर नगर ढिंढोरा पीटा गाँव गाँव ऐलान हुआ ,
कूचे कूचे गली गली में भी शाही फरमान गया ,
अवधपुरी के हर कोने में खुशियों का तूफ़ान उठा ,
मरने वालों को भी आखिर जीने का अरमान  हुआ ,
राम चन्द्र जी के आने की घर घर में थी धून मची ,
सीता जी और लखन लाल के दर्शन की थी आस लगी .
            ( १८ ) 
आज खुशी से आच रहे थे अवधपुरी के नर नारी ,
बच्चा बच्चा कहता था ये खिल गई सुख की फुलवारी ,
महलों के सब दास और दासी थे अपने पर बलिहारी ,
पंडित और नजूमी बोले शुभ दिन है मंगल कारी ,
भरत लाल ने सभा बुलाई राज्य के ओहदेदारों की ,
बंदोबस्त हो ताकि पूरा पछताने की हो न घड़ी .
             ( १९ ) 
रही न कोई बात अधूरी शाही हुकुम हुआ सब पूरा ,
सड़कें साफ़ हुईं थीं निकला गलियों का सब कूढा ,
अवधपुरी के हर वासी ने अपने घर को लीपा पोता ,
सजी सजाई देख दुकानें बच्चा बच्चा झूम रहा था ,
राम लखन की आमद क्या थी सारी नगरी बन गई दुल्हन ,
अवधपुरी बनी सुहागिन नाच उठा धरती का कण कण .
             ( २० ) 
सुबह सवेरे ही नर नारी महल के चारों ओर खड़े थे ,
सबकी नजरें थीं आकाश पे जितने छोटे और बड़े थे ,
हर चेहरे पे बेताबी थी पाँव जमीं पर आज गड़े थे ,
 दिल की धड़कन  तेज हुई थी प्राण हर इक के लब पे अड़े थे ,
पुष्प विमान जो देखा अचानक सब के चेहरे चेहरे खिल उठे थे ,
उछल  उछल के कूद कूद कर जै जै कार लगाईं सबने .

८९-रामायण

                ( १३ )
 भरत लाल की प्यासी आँख से नीर खुशी के बहते थे ,
 सुनकर राम का सुभ संदेशा पाँव जमीं पे न पड़ते थे ,
बेचैनी के बंधन टूटे फिर रीते के रीते थे ,
उनके मन की वह ही जाने कैसे पल छिन  बीते थे ,
 राम की आमद का संदेशा महलों में भी जा पहुंचा ,
अवधपुरी का बच्चा बच्चा सुख सागर में डूब गया .
                  ( १४ ) 
महलों में भी शत्रुघ्न के पास संदेशा पहुंचाया ,
वह भी सुनकर बोले - भगवन संवर गई मेरी काया ,
सेवा करने का तो मौक़ा अब ही सुनहरी है आया ,
मेरा तन मन तुम्हारे अर्पण तुम्हारी है सगरी माया ,
मुझं पापी को पार लगाने तुम ही तो अब आओगे ,
मेरे सोये भाग जागेंगे नरक को स्वर्ग बनाओगे .
                  ( १५ ) 
तुम ही मेरे बन्धु भ्राता तुम ही बापू मैया हो ,
जीवन नैया टूटी फूटी  केवल तुम्हीं खिवैया हो ,
तुम धन मेरे तुम ही डाकू तुम ही इसके रखिया हो ,
घाट घाट के हो तुम ही वासी तुम ही राम रमिया हो ,
खुद ही खुद से कहते जाते थे और खुद ही हँसते जाते थे ,
सच पूछो तो शत्रुघ्न जी फूले नहीं समाते थे .
                   ( १६ ) 
कौशल्या की बूढ़ी आँख तो दावाजे को ताकती थी ,
और सुमित्रा अपने आपको ये कहकर थी समझाती ,
पीठ जो उनकी देखी थी तो मुख भी उनका देखूंगी ,
शाही हरम सरा में आखिर ये खुश खबरी जा पहुँची ,
अश्क खुशी के कौशल्या की आँख से छम छम  बहते थे ,
कैकेई के  भी पाँव जमीं पे आज न बिलकुल टिकते थे .
                ( १३ )
 भरत लाल की प्यासी आँख से नीर खुशी के बहते थे ,
 सुनकर राम का सुभ संदेशा पाँव जमीं पे न पड़ते थे ,
बेचैनी के बंधन टूटे फिर रीते के रीते थे ,
उनके मन की वह ही जाने कैसे पल छिन  बीते थे ,
 राम की आमद का संदेशा महलों में भी जा पहुंचा ,
अवधपुरी का बच्चा बच्चा सुख सागर में डूब गया .
                  ( १४ ) 
महलों में भी शत्रुघ्न के पास संदेशा पहुंचाया ,
वह भी सुनकर बोले - भगवन संवर गई मेरी काया ,
सेवा करने का तो मौक़ा अब ही सुनहरी है आया ,
मेरा तन मन तुम्हारे अर्पण तुम्हारी है सगरी माया ,
मुझं पापी को पार लगाने तुम ही तो अब आओगे ,
मेरे सोये भाग जागेंगे नरक को स्वर्ग बनाओगे .
                  ( १५ ) 
तुम ही मेरे बन्धु भ्राता तुम ही बापू मैया हो ,
जीवन नैया टूटी फूटी  केवल तुम्हीं खिवैया हो ,
तुम धन मेरे तुम ही डाकू तुम ही इसके रखिया हो ,
घाट घाट के हो तुम ही वासी तुम ही राम रमिया हो ,
खुद ही खुद से कहते जाते थे और खुद ही हँसते जाते थे ,
सच पूछो तो शत्रुघ्न जी फूले नहीं समाते थे .
                   ( १६ ) 
कौशल्या की बूढ़ी आँख तो दावाजे को ताकती थी ,
और सुमित्रा अपने आपको ये कहकर थी समझाती ,
पीठ जो उनकी देखी थी तो मुख भी उनका देखूंगी ,
शाही हरम सरा में आखिर ये खुश खबरी जा पहुँची ,
अश्क खुशी के कौशल्या की आँख से छम छम  बहते थे ,
कैकेई के  भी पाँव जमीं पे आज न बिलकुल टिकते थे .

८८-रामायण

              ( ९ )
राम  को तुम से मोह अधिक है उनसे बिगड़े काज  बनें ,
उनसे तख़्त व ताज है कायम उनसे उजड़े राज बसें ,
देख रहा हूँ करनी उनकी उनसे धारे सुख के हैं ,
सब हैं उनके प्यार के भूखे कौन है भूखे रह जो सकें ,
मैं हूँ राम का तुच्छ सेवक हनुमान सब कहते हैं ,
यही संदेशा लाया हूँ मैं राम अवधपुर आये हैं .
              ( १० ) 
राम के बल से बसे अयोध्या सीता बिन रनिवास नहीं ,
महल मीनारें सूने सूने लखन जी पास नहीं ,
किसके सहारे भला जियें हम जीने की अब आस नहीं ,
राम चन्द्र जी हुए हैं निष्ठुर उनको तो अहसास नहीं ,
भरत लाल जी रोकर बोले आँखों में था नीर बहा ,
हनुमान ने गले लगाकर आखिर ये सन्देश कहा .
              ( ११ ) 
दुःख के बादल छंट गए भैया आ गई है सुख की राशि ,
आज तलक थी घोर अमावस कल हो गई पूरण मासी ,
मन में धीरज रखो भैया रायेंगे दुःख से नाशी ,
रघुराई आते ही होंगे अवध बनेगी अब काशी ,
चौदह साल हुए हैं पूरे आज अवध के भाग जगे ,
सुख की बरखा होगी अब तो दुःख के बंधन आज कटे .
               ( १२ ) 
वनवासी अब नहीं राम जी वह तो राज दुलारे हैं ,
आदि से लेकर अंत तलक वह सब की आँख के तारे हैं ,
चौदह बरस समाप्त हुए प्रयाग में आन पधारे हैं ,
इक दिन अधिक लगायेंगे वह यज्ञ के बहुत प्यारे हैं ,
इसी तरह से हनुमान ने सारी लीला कह डाली ,
भरत लाल ने सुनी प्रेम से राम की लीला मतवाली .

८७-रामायण

             ( ५ ) 
चन्दन की लकड़ी घी में डूबी जल्दी आग पकडती है ,
आग और घी में मेल नहीं है आग ही घी से लडती है ,
राख हुआ मैं उड़ जायेगी हवा कहाँ अब उडती है ,
अपना प्रेम बसे जहां पे  आँख वहीँ पे  गड़ती है ,
वायुमंडल महकेगा जब भाग मेरे भी जागेंगे ,
इसी बहाने राम मिलेंगे दिल के गम सब भागेंगे .
                ( ६ ) 
भाग हैं अपने मंदे मंदे पाँव में लेकिन मोच नहीं ,
भाई बन्धु और भ्राता बिछुड़े तो संकोच नहीं ,
सीता मां और लखन को देखूं मेरे भाग में लोच नहीं ,
राम को गर मैं पा न सकूँ तो फिर भी दिल में सोच नहीं ,
मेरी देह का इक इक फूल ही खेती के काम आयेगा ,
सांस हर इक पहुंचेगा अभ में और बरखा बरसायेगा .
               ( ७ ) 
रघुवंश के भरत लाल जी रो रो चेहरा धोते थे ,
तन मन उनका थर थर काँपे दिल का धीरज खोते थे ,
अवधपुरी के नर नारी भी अंसुवन हार पिरोते थे ,
दिल की कलियाँ मुरझाई थीं गम के कांटे बोते थे ,
ज्यों ही दागी चिता भरत ने हनुमान जी आ पहुंचे ,
लेकर वह सन्देश राम का नंदीग्राम में जा  पहुंचे .
                ( ८ ) 
भरत लाल को देखा ज्यों ही आगे बढ़कर की दंडवत ,
बोले एक मिनट की डेरी से आ जाती बन्धु मौत ,
दुनिया सारी  मुझको कहती मुझ पर आती हरिक सौत ,
मेरी रूह भटकती रहती सुनता मैं किस किस की चौत ,
तुमसे राम का ह्रदय धडके राम से प्रजा जीती है ,
प्रजा से ये बसे अयोध्या स्वर्ग को जिससे प्रीती   है .

८६-रामायण

      राजतिलक 


        (१ ) 
कैकेई सुत भरत लाल जी नंदी ग्राम में रहते थे ,
राम नाम की धुन थी उनको राम का वियोग ही सहते थे ,
राम चन्द्र की लिए खडाऊं दुःख सागर में बहते थे ,
ठंडी आहें भरते थे और दिल ही दिल में कहते थे ,
चौदह साल भी हो गए पूरे अब कब लौट के आओगे ,
आप ही मात पिता और बन्धु आप ही जान बचाओगे .
            ( २ ) 
मेरे भैया चित्रकूट का वायदा खूब निभाया है ,
चौदह बरस कहा था तुमने इक दिन अधिक लगाया है 
निर्धन का धन आप ही हो और आपसे ही ये काया है ,
आप बिन तो हाय कलेजा अपना मुंह को आया है ,
भरत लाल ये कहते थे और छम छम नीर बहाते थे ,
पल पल छिन छिन गिनते थे और विरह में जलते  जाते थे .
             ( ३ ) 
दशरथ नंदन जोगी बनकर 
कंद
 मूल फल खाते थे ,
घास फूस पर सोकर ही वह मन को धीर बंधाते थे ,
चित्रकूट से आये थे जब से महलों में नहीं जाते थे ,
छोटी सी इक कुटी बनाकर राम की महिमा गाते थे ,
चौदह बरस हुए जब पूरे मन का धीरज छुट गया ,
कहा की इक दिन हुआ ज्यादा बिन के नसीबा फूट गया.
              ( ४ ) 
अब तो वियोग सहा नहीं राजा कौन भला अब गम खाए ,
कहा ज्यों ही ये भरत लाल ने ज्यों ही लकड़ी ले आये ,
जल्दी से फिर की तैयारी ताकि ये मौत ही आ जाए ,
जल मरने को चिता बना कर मन ही मन वह मुस्काये ,
दरस  की प्यासी अँखियाँ मेरी राम की सुध नहीं आयेगी ,
अब तो जिस्म ये राख बनेगा हवा उड़ा ले जायेगी .

८५-रामायण

               ( ५३ ) 
की आरजी है जिन्दगी गर वर की न बात कर ,
की बंदगी में नूर है तू इकसार ही से  डर ,
मुझे डुबोया जिद ही ने फिजूल की तू जिद न कर ,
तू प्यार ही से रह सदा की इश्क सब का राह्वर ,
ये बात ख़त्म हो गई तो काल आ गया तभी            
 ये काम की सुनी तो  लक्ष्मण ने राह ली .
                ( ५४ ) 
तभी सिया भी आ गई हुई तभी परीक्षा ,
परीक्षा सफल फुई कबूल राम ने किया ,
विभीषण आदि सब ने दाह संस्कार कर दिया ,
विभीषण आये सामने तो हुक्म राम का मिला ,
तुम्हें राज सौंपता की याक्बत का डर तुम्हें ,
तुम्हें खुदा का खौफ है नहीं है कुछ खतर तुम्हें .
                ( ५५ ) 
तेरे फी फैज से मिली थी लक्ष्मण की जिन्दगी ,
तेरे ही बल से राम को फतह नसीब हुई ,
सिया को राम मिल गए की हक़ ने पाई थी खुशी ,
विभीषण आये सामने तो जिन्दगी भी उसको दी ,
रहीम तू करीम तू तेरा  है फैज सर बसर ,
क्या करम है मुझ पे भी की आ गया हूँ राह पर 

८४-रामायण

           ( ४९ ) 
हुआ कट्माब ख़त्म जब तो रावण आया सामने ,
मुकाबले के वास्ते तो राम चन्द्र जी चले ,
ज्यों ही हुआ था सामना तो तंग उससे आ गए ,
कटा जो एक हाथ तो उसी से ही दस आ गए ,
अलग हुआ जो तन से सर तो दूसरा ही लग गया ,
ये बात क्या थी  आखिर से न कोई भी समझ सका .
             ( ५० ) 
तभी विभीषण आ गए कहा ये राम चन्द्र को ,
ये सिलसिला रहेगा यों मेरी  भी बात अब सुनों ,
की जाने मन है बात ये की अब निजात दे दी तो ,
है अमृत इसके सीने में की सीना उसका छेड़ दो ,
सूनी ये बात राम ने तो तीर खींचा तानकर ,
लगा ज्यों ही ये तीर तो वह गिर पडा जमीं पर .
              ( ५१ ) 
जमीं भी थरथरा उठी फलक भी काँप काँप उठा ,
मसर्रतों की धूम थी था जर्रा जर्रा नाचता ,
फतह हुई थी हक़ की फिर की काजर की जाबाल था ,
इधर खुशी का राज था उधर  सहर था गमकदा ,
कहा ये राम ने लखन की वह बड़ा विद्वान था ,
की जाके कुछ तो सीख लो की बात वह कहे बजा .
               ( ५२ ) 
वह पहले सर की ओर थे गए तभी वह पांवों पर ,
कहा -हमें भी सीख दो की जिन्दगी हो बसर ,
तो आँख खुल गई तभी की मिल गया था राहबर ,
कहा तभी की जाने मन न मौत से हो बेखबर ,
खुशामदों में तू न पद खुशामदी तबाह्कुन ,
तू याक्बत  की फिकर कर तू याक्बत की राह चुन .

बुधवार, 15 सितंबर 2010

८३-रामायण

                ( ४५ ) 
तभी हुआ मुकाबला की घोर युद्ध छिड़ गया ,
की इन्द्रजीत और लखन में घोर युद्ध था हुआ ,
उसी से ही लक्ष्मण ने बढ़के वार कर दिया ,
की मेघनाथ लक्ष्मण का वार ये न सह सका ,
वह गिर पडा जमीं पर की हाथ कट के रह गया ,
इसी से ही लक्ष्मण ने उसका सर भी था कटा .
                 ( ४६ ) 
वह सर लिए चले ज्यों ही विजय के राग बज गए ,
की नाज जिनको खुद पे था वह ख़ाक ही में जा मिले ,
खबर गई ज्यों ही वहां तभी सभी ही रो पड़े ,
की मौत का समा बंधा की बुझ गए जले दिए ,
सुलोचना के पास हाथ मेघनाथ का गिरा ,
वह देखते ही रो पडी की दिल का चैन लुट गया .
                  ( ४७ )
तभी तो मांग पूछ गई हयात उसकी लुट गई ,
वह बेकरार हो गई वह चीख मार कर गिरी ,
उसे न होश कुछ रहा की मौत ही थी जिन्दगी ,
हवास में वह आ गई लंकेश से कहा यों ही ,
वाही थे मेरी जिन्दगी वाही थे मेरी याक्बत ,
उन्हीं के दम से सच की बन रहा था मेरा सत .
                 ( ४८ ) 
सती है मेरी जिन्दगी में चाहती हूँ मौत अब ,
मुझे तो सर ही चाहिए मरुंगी लेके उसको तब ,
मैं पास राम के चलूँ की चाहिए ये हुकुम अब ,
जबाब ये मिला तभी मैं रोकता हूँ तुझको कब ,
इसी समय ही लाइ सर तभी सती वह हो गई ,
वह मर गई थी जान से मगर मिली थी जिन्दगी .                ( ४५ ) 
तभी हुआ मुकाबला की घोर युद्ध छिड़ गया ,
की इन्द्रजीत और लखन में घोर युद्ध था हुआ ,
उसी से ही लक्ष्मण ने बढ़के वार कर दिया ,
की मेघनाथ लक्ष्मण का वार ये न सह सका ,
वह गिर पडा जमीं पर की हाथ कट के रह गया ,
इसी से ही लक्ष्मण ने उसका सर भी था कटा .
                 ( ४६ ) 
वह सर लिए चले ज्यों ही विजय के राग बज गए ,
की नाज जिनको खुद पे था वह ख़ाक ही में जा मिले ,
खबर गई ज्यों ही वहां तभी सभी ही रो पड़े ,
की मौत का समा बंधा की बुझ गए जले दिए ,
सुलोचना के पास हाथ मेघनाथ का गिरा ,
वह देखते ही रो पडी की दिल का चैन लुट गया .
                  ( ४७ )
तभी तो मांग पूछ गई हयात उसकी लुट गई ,
वह बेकरार हो गई वह चीख मार कर गिरी ,
उसे न होश कुछ रहा की मौत ही थी जिन्दगी ,
हवास में वह आ गई लंकेश से कहा यों ही ,
वाही थे मेरी जिन्दगी वाही थे मेरी याक्बत ,
उन्हीं के दम से सच की बन रहा था मेरा सत .
                 ( ४८ ) 
सती है मेरी जिन्दगी में चाहती हूँ मौत अब ,
मुझे तो सर ही चाहिए मरुंगी लेके उसको तब ,
मैं पास राम के चलूँ की चाहिए ये हुकुम अब ,
जबाब ये मिला तभी मैं रोकता हूँ तुझको कब ,
इसी समय ही लाइ सर तभी सती वह हो गई ,
वह मर गई थी जान से मगर मिली थी जिन्दगी .                ( ४५ ) 
तभी हुआ मुकाबला की घोर युद्ध छिड़ गया ,
की इन्द्रजीत और लखन में घोर युद्ध था हुआ ,
उसी से ही लक्ष्मण ने बढ़के वार कर दिया ,
की मेघनाथ लक्ष्मण का वार ये न सह सका ,
वह गिर पडा जमीं पर की हाथ कट के रह गया ,
इसी से ही लक्ष्मण ने उसका सर भी था कटा .
                 ( ४६ ) 
वह सर लिए चले ज्यों ही विजय के राग बज गए ,
की नाज जिनको खुद पे था वह ख़ाक ही में जा मिले ,
खबर गई ज्यों ही वहां तभी सभी ही रो पड़े ,
की मौत का समा बंधा की बुझ गए जले दिए ,
सुलोचना के पास हाथ मेघनाथ का गिरा ,
वह देखते ही रो पडी की दिल का चैन लुट गया .
                  ( ४७ )
तभी तो मांग पूछ गई हयात उसकी लुट गई ,
वह बेकरार हो गई वह चीख मार कर गिरी ,
उसे न होश कुछ रहा की मौत ही थी जिन्दगी ,
हवास में वह आ गई लंकेश से कहा यों ही ,
वाही थे मेरी जिन्दगी वाही थे मेरी याक्बत ,
उन्हीं के दम से सच की बन रहा था मेरा सत .
                 ( ४८ ) 
सती है मेरी जिन्दगी में चाहती हूँ मौत अब ,
मुझे तो सर ही चाहिए मरुंगी लेके उसको तब ,
मैं पास राम के चलूँ की चाहिए ये हुकुम अब ,
जबाब ये मिला तभी मैं रोकता हूँ तुझको कब ,
इसी समय ही लाइ सर तभी सती वह हो गई ,
वह मर गई थी जान से मगर मिली थी जिन्दगी .

८२-रामायण

                    (४१ ) 
लखन ने पाई जिन्दगी फिजां में नूर छा गया ,
खिजां का दौर लड़ गया नफास नफास महक उठा ,
खुशी का दौर आ गया गामी का दौर चल बसा ,
मिली थी हक़ को जिन्दगी की रंग झूठ का उड़ा ,
गरूरेकबर मिट गया की जिन्दगी की जय हुई ,
मिटी थीं नखवती भी की आजजी अजय हुई .
                  ( ४२ ) 
उसी समय ही लैश हो चले सभी वह युद्ध  को ,
तब इन्द्रजीत आ गया गरूर में वह मस्त हो ,
की अपने बल पे नाज था चला वह बल में चूर हो ,
हवास गुम ही हो गए दी गफल उसने अपनी खो ,
मुकाबला हुआ तभी मुकाबले की जोड़ थी ,
ये जंग कज्रो इश्क के जहां में एक मोड़ थी .
                  ( ४३ ) 
बढे चलो बहादुर कहा यों ही पुकार के ,
ये आन का सवाल है है की रख दो जान को परे ,
की आबरू तुम्हीं तो हो निकाल दो स्वदेश से ,
है तेंग चमचमा रही की जान गुरेज में पड़े ,
न माल  का ख्याल है न जान का ख्याल है ,
अगर है कुछ ख्याल सिर्फ आन का ख्याल है .
                ( ४४ ) 
हुई  तभी तो जंग ही की खेत कट के रह गया ,
हुआ तभी तो इन्द्रजीत और लखन का सामना ,
की खून की नदी बही मिला  सनम न और खुदा ,
चले ज्यादह इतने तीर आसमान घिर गया ,
कभी थे वार तेग के कभी तो बर्छियां  चलीं ,
कभी चले थे गुरेज भी की खेतियाँ ही कट गईं .

८१-रामायण

                       ( ३७ ) 
भरत मुझे कहेंगे ये मैं जाउंगा अयोध्या  में जब ,
कहाँ गए हैं भाई जी जबाब क्या मैं दूंगा तब ,
कहूंगा क्या मैं उस समय जो बात पूछ लेंगे सब ,
सिया भी तो नहीं है अब खुलेंगे किस तरह लब ,
कहेगी मां कहाँ लखन कहूंगा क्या भला बता ,
दहाड़ें मार रोयेंगी तो किसे दूंगा आसरा .
                    ( ३८ )
 इधर राम रो रहे उधर खुशी थी नाचती ,
की रक्ष था सरूर था की आ गई थी जिन्दगी ,
मसर्रतों की धूम थी न थी कहीं भी बेकली .
चमन चमन में नूर था कली कली में थी हंसी ,
कदम कदम पे ऐश थी निशात का बंधा समां ,
विजय की मस्तियों में ही थे झूमते सभी जवां .
                 ( ३९ ) 
बुलाया फिर सुखेन  को कहा इलाज कीजिये ,
कहा की जाके कोह से संजीवनी भी लाइए ,
कहा तभी हनुमंत से की अब तुरंत जाइए ,
यही है एक इल्तजा सुबह से कबल आइये ,
सूना ये हुकुम चल दिए वह लाये कोह को उठा ,
वह आये जब तो दिन निकलने में ज्यादा वक्त था .
               ( ४० ) 
दुआ  भी बासर हुई दवा भी कारगर  हुई  ,
सुखेन ही के फैज से मिली लखन को जिन्दगी ,
मिली लक्ष्मण को जिन्दगी हयात  राम को मिली ,
चमन चमन महक उठा कली कली चटक उठी ,
खिजां का दौर हट गया बहार को गरूर था ,
दिलों में थी तरावटें नजर नजर में नूर था .

८०-रामायण

              ( ३३ ) 
वह दनदनाता चल पडा की वह तो इन्द्रजीत था ,
की दिल में इक उमंग थी की दिल में इक था बबूला ,
वह खेल था समझ रहा की वह भी तो था सूरमा ,
वह फ़ौज ले के अपनी फिर तो यद्ध ही में आ दाता ,
है कौन मां का लाल ये कहा ज्यों ही पुकार के ,
तो एक पल में लक्ष्मण मुकाबले को आ गए .
               ( ३४ ) 
हर इक सिपाही लैश था दिलों में इक तरंग थी ,
की जीतने की चाह थी यही तो इक उमंग थी ,
ये गुरेज तीर तेग ढाल तेजे ही की जंग थी ,
की हक़ की थी जमीं बसमा जमीं रिया की तंग थी ,
हुआ तभी मुकाबला घोर युद्ध छिड़ गया ,
जमीं फलक से मिल गई फलक जमीं से मिल गया .
                ( ३५ ) 
उसी समय ही मेघनाथ मौक़ा देखकर बढ़ा ,
चलाई उसने शक्ति आई लक्ष्मण को मूर्छा ,
उसी समय ही राम चन्द्र जी को गम हो गया ,
तो लाये उनको कैम्प में लहू लुहान जिस्म था ,
ज्यों ही ये देखा राम ने तो अश्क आये आँख में ,
कहा की हाय लक्ष्मण ये अश्क आँख से बहे .
               ( ३६ ) 
मुझे भी साथ ले चलो कहाँ अकेले चल दिए ,
कहाँ का बोलो प्रेम है की साथ छोड़कर चले ,
ये जिन्दगी न चाहिए की मौत आये अब मुझे ,
नसीब ही मेरा बुरा की आ गए हैं दिन बुरे ,
लखन भी साथ छोड़  कर चले चली गई मेरी सिया ,
बुला ले मुझको ए खुदा यही है तुझसे इल्तजा               

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

७९-रामायण

                  ( २९ ) 
सुनी खबर ज्यों ही वह कुम्भकरण के यहाँ चला गया ,
वह छः महीने जागता था छः महीने सोता था ,
वह उस समय भी चैन की थी बांसुरी बजा रहा ,
बड़े ही चैन सुख से था वह गहरी नींद सो रहा ,
दिलों के भेद छुप गए दिलों के दाग छुप गए ,
वह सो रहा था नींद में यहाँ थे ढोल बज रहे .
                 ( ३० ) 
उठा तभी वह चौंक कर की जाने मन है बात क्या ,
मैं नींद में था सो रहा मुझे जगाया क्यों भला ,
है क्या मुसीबत आ पडी पहाड़ क्या है गिर पडा ,
है बात क्या मुझे भी तो बताओ आज तुम ज़रा ,
कजा है किसकी आ गई की मौत खींच लाइ है ,
मैं उठूँ तो कहेंगे सब दुहाई है दुहाई है 
                   ( 31 ) 
ज्यों ही हुई ये गुफ्तगू वह एक दम ही यथ पडा ,
वह क्या उठा की एक दम ही जलजला सा आ गा ,
जमीं भी काँप काँप उठी फलक भी थरथरा  गया ,
हवा के रुख बदल गए ज्यों ही वह वीर उठ पडा ,
किया ज्यों ही मुकाबला वह वीर ढेर हो गया ,
की कुम्भकरण तो एक पल में ख़ाक ही मैं मिल गया .
                   ( ३२ ) 
गई खबर मौत की तो सोग छा  गया मन ,
की गम का राज हो गया की गम ही था गया मन ,
करा सबका लुट गया वह जुल्म ढा गया मन ,
सुनी खबर लंकेश ने तो गश ही था खा गया मन ,
हुए हरेक शख्स  के तभी हवास बाखता ,
सुना चचा हैं मर गए तो मेघनाथ आ गया .

७८-रामायण

                ( २५ ) 
ये रास्ता है पाप का तू राह पाप की न चल ,
गरूर से मिलेगा क्या गरूर जाएगा निकल ,
ये बल निकल ही जायेंगे लगे न इनको एक पल ,
न बैर से मिलेगा कुछ की प्रेम ही सदा सबल ,
तू पैर राम के पकड़ ये इल्तजा है बा रहा ,
तू याक्बत संवार ले तू किस तरफ है जा रहा .
                 ( २६ ) 
ज्यादह बात मत बना ऊ बोल दे ये राम से ,
मैं जानकी को छोड़ दूँ ख्याल वह ये छोड़ दे ,
है जिसमें जोर और बल वाही सिया को ले भी ले ,
मामले हैं जंग के हैं जंग ही के फैसले ,
मैं जानकी न दूंगा यों इसी में मेरा मान है ,
इसी में मेरी शान है यही तो मेरी जान है .
                 ( २७ ) 
सुना ये फैसला ज्यों ही तो दूत वां से चल पडा ,
कहा ये जाके राम से की जंग का है फैसला ,
तो फिर सभी ही चल पड़े की जंगी की थी इब्तदा ,
किसी के हाथ में कमान  किसी के पास संग था  ,
किसी के पास गुस्सा था किसी के पास तेग थी ,
किसी के पास बलोले किसी के पास थी ख़ुशी .
                 ( २८ ) 
वह काफले में चल रहे रवां उवां रवां दवां ,
थे जामवंत नील नल थी जिन के हाथ में कयां ,
की भक्ति और श्रद्धा का बंधा हुआ था इक समां ,
की लंका की ओर चले कसां रवां रवां ,
खबर मिली लंकेश को की फ़ौज राम की चली ,
की चलते -चलते आखिर से वह लंका ही में आ गई .

७७-रामायण

  ( २१ ) 
तू जानकी को छोड़ दे खता तेरी माफ़ हो ,
को जाके राम चन्द्र के तू पाँव गंगाजल से धो ,
हो बात काम की तभी की जंग से तू दूर हो ,
ये शर्त अगर कबूल है दे हुकुम एक एक को ,
कहा अभी कनकेश ने हूँ बात तेरी मानता ,
कहा है तू ने जो भी मैं दुरस्त उसको जानता .
          ( २२ ) 
ये बात उसने जब सुनी तो टांग दी मानो जमा ,
तो बारी बारी एक एक सूरमा तभी उठा ,
कोई लिपट गया तो कोई टांग से चिपट गया ,
ये टांग थी अताब था की बन गई थी इक बला ,
ये टांग थी की कील थी जो गड  गई जमीं पर ,
लगाया जोर सब ही ने मगर हुआ न कुछ असर .
            ( २३ ) 
जब एक एक सूरमा ने जोर आजमा लिया ,
तो चेहरा अपना -अपना सबने शर्म से झुका लिया ,
की थक के चूर हो गए हर इक अर्क अर्क हुआ ,
उसी समय ही तख़्त से तो राजा रावण उठ पडा ,
झुका ज्यों ही वह टांग पर तो दूत ने तभी कहा ,
तू पाँव मेरे मत पकड़ नहीं मैं पाप बख्शता .
            ( २४ ) 
तू पाँव राम के पकड़ वह याक्बत का नूर है ,
वह पाप सब के बख्शता वह पाप ही से दूर है ,
वाही है रह निजात की वह सिला है वह टूर है ,
वह हुश्न की असास है वह इश्क का गरूर है ,
ये वक्त अबग है आख़िरी तू कहना मेरा मान ले ,
तू जानकी को छोड़ दे तू जानकी को छोड़ दे 

७६-रामायण

     ( १७ ) 
मेरी  ये बात सुन तू कान खोल कर ज़रा ,
मेरे नगीं हैं जमीं हैं व आसमां के देवता ,
मैं जोगियों को मुंह नहीं जहां में लगा रहा ,
हो छोकरों से गुफ्तगुं  मुकाबले की बात क्या ,
हो शाह से मुकाबला ये शाह की हयात है ,
की जोर ताकत और बल यही तो कायनात है .
           ( १८ ) 
ये जोर मेरी जिन्दगी ये जोर ही उमंग है ,
यही है साथ गर मेरे तो कल जहां संग है ,
नसीब इनसे जागते यही तो एक ढंग है ,
नहीं जोर जिसमें उसके रंग ही में भंग है ,
हो साधुयों से दोस्ती नहीं ये बात काम की ,
करूँ भला मैं किस लिए ठगों से आसतीं .
            ( १९ ) 
ये सुन के बात यों कहा - यही तेरा उसूल है ,
जो बात है तू कह रहा मुझे भी ये कबूल है ,
की जोर ताकत और बल यही तेरा रसूल है ,
की जोर ही के बल पे पाई पाई सब वसूल है ,
मैं इम्तहान ले रहा हूँ आज तेरे जोर का ,
हूँ टांग मैं जमा रहा उठाये कोई दूसरा .
            ( २० ) 
अगर तू जीत जाएगा मैं लौट जाउंगा तभी ,
तू जानकी का हो गया की जानकी तेरी हो गई ,
यही नहीं मैं उम्र भर करूंगा तेरी बंदगी ,
करूंगा तेरी चाकरी करूंगा तेरी नौकरी ,
अगर तू हार जाएगा तो मेरी भी एक शर्त है ,
की जानकी हो राम की यहाँ तू मुझको कॉल दे