शनिवार, 11 सितंबर 2010

५७-रामायण

                 (५ ) 
लाडले दशरथ के हैं हम और अवध अपना वतन ,
स्वामी तकदीर से ही छोड़ बैठें हैं चमन ,
छानते हैं हम पिता के हुकुम से कोह व दमन ,
राम चन्द्र नाम मेरा ये हैं भाई लक्ष्मण ,
मुझको वक्त नारी सा इक और चरका दे गया ,
एक जालिम मेरी बीवी को उठा कर ले गया .
                     ( ६ ) 
ढूँढ़ते हैं हम उस नाजनीन को दर ब दर ,
ऐसा लगता है न होगी अपनी म्हणत कारगर ,
सब सूना हनुमान ने बोले करो मत आँख तर ,
मेरे आका से अगर हो जाओ तुम शीर व शिकर ,
दुःख दलद्दर दूर सारे अपने होते जाएंगे ,
आप भी आखिर मुरादें अपने दिल की पायेंगे . 
                   ( ७ ) 
गिर पड़े चरणों में ये कहकर तभी हनुमान जी ,
दुई का पर्दा हटाया कर दी अर्पण जिन्दगी ,
राम ने पाली मुरादें खिल गई दिल की कली ,
बढ़के सीने से लगाया हो गई फिर दोस्ती ,
अपने संधों पर बैठा हनुमान लाये कोह पर ,
बे तकुल्लुफ़  हो गए सर थके वह लखते जिगर .
                  (८ ) 
जब सुनाई राम की विपदा वहां हनुमान ने ,
चाँद जेवर राम के आगे उन्होंने कर दिए ,
और कहा - भगवन ये जेवर गौर से खुद देखिये ,
किनके जेवर हैं ज़रा पहचान उनको लीजिये ,
एक औरत को लिए जाता था लंका का नरेश ,
लोग कहते इस को रावण उससे डरते हैं महेश 

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