मंगलवार, 7 सितंबर 2010

42- रामायण

                              ( ९९ ) 
रहे चाँद दिन सभी मौज से सभी ज्ञान गंगा में बह गए ,
वहां स्वर्ग लोक ही बस गया सभी प्रेम धुन ही में लीं थे ,
हुई भरत लाल से गुफ्गू इस तरह आखिर राम से ,
मेरी जान जंगल को छोड़ दो की राम से से ही तो अवध बसे ,
चलो राज पाट की सुध भी लो वाही जिन्दगी असास है ,
वही निजात का रास्ता वही याक्बत ही तो आस है ,
                            (१०० ) 
कहा राम चन्द्र ने जाने मन मुझे हुकुम वालिद अजीज है ,
मुझे आन ही का तो पास है नहीं उनसे बढ़कर है कोई शै ,
यही याक्बत का है रास्ता यही माफत की है मस्त मय,
ये याक्बत और यही बंदगी यही प्यार की तो मधुर है ले ,
कहा भरत लाल ने जाने मन मुझे साथ जंगल में ले चलो ,
मुझे तख़्त व ताज से क्या गरज मेरी जिंदगानी  तो तुम ही हो .
                             ( १०१ ) 
ये सूना तो राम ने यों कहा - नहीं बात ये तो द्रस्त कुछ ,
यदि साथ मेरे ही चल पड़े रहे राज पाट ही सुस्त कुछ ,
तुम्हें चाहिए मेरी जान अब रहो जिंदगानी में चुस्त कुछ ,
मुझे गम ज्यादह है तुम से भी नहीं दिल का हाल दुरस्त कुछ ,
चले जाओ अब तुम अयोध्या यही अर्ज है मेरी आज तो ,
तुम्हें मेरे प्यार का वास्ता   की ये काम रोने का छोड़ दो .
                               ( १०२ ) 
कहा भरत लाल ने भाई जी मैं तुम्हारा हुकुम हूँ मानता  ,
तुम्हीं जिन्दगी का असास हो तुम्हीं याक्बत हो मैं जानता ,
मुझे बस खडाऊं  ही चाहिए यही आज तुमसे हूँ माँगता ,
वां तुम्हारे नाम राज हो यही बात इस हूँ मैं जानता ,
मेरी बात सुन लो ये गौर से जो ज्यादा इक दिन लगाओगे ,
मैं तो जल मरुंगा चिता में बस मुझे ज़िंदा तुम भी न पाओगे .       

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें