मंगलवार, 14 सितंबर 2010

७७-रामायण

  ( २१ ) 
तू जानकी को छोड़ दे खता तेरी माफ़ हो ,
को जाके राम चन्द्र के तू पाँव गंगाजल से धो ,
हो बात काम की तभी की जंग से तू दूर हो ,
ये शर्त अगर कबूल है दे हुकुम एक एक को ,
कहा अभी कनकेश ने हूँ बात तेरी मानता ,
कहा है तू ने जो भी मैं दुरस्त उसको जानता .
          ( २२ ) 
ये बात उसने जब सुनी तो टांग दी मानो जमा ,
तो बारी बारी एक एक सूरमा तभी उठा ,
कोई लिपट गया तो कोई टांग से चिपट गया ,
ये टांग थी अताब था की बन गई थी इक बला ,
ये टांग थी की कील थी जो गड  गई जमीं पर ,
लगाया जोर सब ही ने मगर हुआ न कुछ असर .
            ( २३ ) 
जब एक एक सूरमा ने जोर आजमा लिया ,
तो चेहरा अपना -अपना सबने शर्म से झुका लिया ,
की थक के चूर हो गए हर इक अर्क अर्क हुआ ,
उसी समय ही तख़्त से तो राजा रावण उठ पडा ,
झुका ज्यों ही वह टांग पर तो दूत ने तभी कहा ,
तू पाँव मेरे मत पकड़ नहीं मैं पाप बख्शता .
            ( २४ ) 
तू पाँव राम के पकड़ वह याक्बत का नूर है ,
वह पाप सब के बख्शता वह पाप ही से दूर है ,
वाही है रह निजात की वह सिला है वह टूर है ,
वह हुश्न की असास है वह इश्क का गरूर है ,
ये वक्त अबग है आख़िरी तू कहना मेरा मान ले ,
तू जानकी को छोड़ दे तू जानकी को छोड़ दे 

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