गुरुवार, 16 सितंबर 2010

८६-रामायण

      राजतिलक 


        (१ ) 
कैकेई सुत भरत लाल जी नंदी ग्राम में रहते थे ,
राम नाम की धुन थी उनको राम का वियोग ही सहते थे ,
राम चन्द्र की लिए खडाऊं दुःख सागर में बहते थे ,
ठंडी आहें भरते थे और दिल ही दिल में कहते थे ,
चौदह साल भी हो गए पूरे अब कब लौट के आओगे ,
आप ही मात पिता और बन्धु आप ही जान बचाओगे .
            ( २ ) 
मेरे भैया चित्रकूट का वायदा खूब निभाया है ,
चौदह बरस कहा था तुमने इक दिन अधिक लगाया है 
निर्धन का धन आप ही हो और आपसे ही ये काया है ,
आप बिन तो हाय कलेजा अपना मुंह को आया है ,
भरत लाल ये कहते थे और छम छम नीर बहाते थे ,
पल पल छिन छिन गिनते थे और विरह में जलते  जाते थे .
             ( ३ ) 
दशरथ नंदन जोगी बनकर 
कंद
 मूल फल खाते थे ,
घास फूस पर सोकर ही वह मन को धीर बंधाते थे ,
चित्रकूट से आये थे जब से महलों में नहीं जाते थे ,
छोटी सी इक कुटी बनाकर राम की महिमा गाते थे ,
चौदह बरस हुए जब पूरे मन का धीरज छुट गया ,
कहा की इक दिन हुआ ज्यादा बिन के नसीबा फूट गया.
              ( ४ ) 
अब तो वियोग सहा नहीं राजा कौन भला अब गम खाए ,
कहा ज्यों ही ये भरत लाल ने ज्यों ही लकड़ी ले आये ,
जल्दी से फिर की तैयारी ताकि ये मौत ही आ जाए ,
जल मरने को चिता बना कर मन ही मन वह मुस्काये ,
दरस  की प्यासी अँखियाँ मेरी राम की सुध नहीं आयेगी ,
अब तो जिस्म ये राख बनेगा हवा उड़ा ले जायेगी .

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