बुधवार, 15 सितंबर 2010

८१-रामायण

                       ( ३७ ) 
भरत मुझे कहेंगे ये मैं जाउंगा अयोध्या  में जब ,
कहाँ गए हैं भाई जी जबाब क्या मैं दूंगा तब ,
कहूंगा क्या मैं उस समय जो बात पूछ लेंगे सब ,
सिया भी तो नहीं है अब खुलेंगे किस तरह लब ,
कहेगी मां कहाँ लखन कहूंगा क्या भला बता ,
दहाड़ें मार रोयेंगी तो किसे दूंगा आसरा .
                    ( ३८ )
 इधर राम रो रहे उधर खुशी थी नाचती ,
की रक्ष था सरूर था की आ गई थी जिन्दगी ,
मसर्रतों की धूम थी न थी कहीं भी बेकली .
चमन चमन में नूर था कली कली में थी हंसी ,
कदम कदम पे ऐश थी निशात का बंधा समां ,
विजय की मस्तियों में ही थे झूमते सभी जवां .
                 ( ३९ ) 
बुलाया फिर सुखेन  को कहा इलाज कीजिये ,
कहा की जाके कोह से संजीवनी भी लाइए ,
कहा तभी हनुमंत से की अब तुरंत जाइए ,
यही है एक इल्तजा सुबह से कबल आइये ,
सूना ये हुकुम चल दिए वह लाये कोह को उठा ,
वह आये जब तो दिन निकलने में ज्यादा वक्त था .
               ( ४० ) 
दुआ  भी बासर हुई दवा भी कारगर  हुई  ,
सुखेन ही के फैज से मिली लखन को जिन्दगी ,
मिली लक्ष्मण को जिन्दगी हयात  राम को मिली ,
चमन चमन महक उठा कली कली चटक उठी ,
खिजां का दौर हट गया बहार को गरूर था ,
दिलों में थी तरावटें नजर नजर में नूर था .

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