गुरुवार, 16 सितंबर 2010

८४-रामायण

           ( ४९ ) 
हुआ कट्माब ख़त्म जब तो रावण आया सामने ,
मुकाबले के वास्ते तो राम चन्द्र जी चले ,
ज्यों ही हुआ था सामना तो तंग उससे आ गए ,
कटा जो एक हाथ तो उसी से ही दस आ गए ,
अलग हुआ जो तन से सर तो दूसरा ही लग गया ,
ये बात क्या थी  आखिर से न कोई भी समझ सका .
             ( ५० ) 
तभी विभीषण आ गए कहा ये राम चन्द्र को ,
ये सिलसिला रहेगा यों मेरी  भी बात अब सुनों ,
की जाने मन है बात ये की अब निजात दे दी तो ,
है अमृत इसके सीने में की सीना उसका छेड़ दो ,
सूनी ये बात राम ने तो तीर खींचा तानकर ,
लगा ज्यों ही ये तीर तो वह गिर पडा जमीं पर .
              ( ५१ ) 
जमीं भी थरथरा उठी फलक भी काँप काँप उठा ,
मसर्रतों की धूम थी था जर्रा जर्रा नाचता ,
फतह हुई थी हक़ की फिर की काजर की जाबाल था ,
इधर खुशी का राज था उधर  सहर था गमकदा ,
कहा ये राम ने लखन की वह बड़ा विद्वान था ,
की जाके कुछ तो सीख लो की बात वह कहे बजा .
               ( ५२ ) 
वह पहले सर की ओर थे गए तभी वह पांवों पर ,
कहा -हमें भी सीख दो की जिन्दगी हो बसर ,
तो आँख खुल गई तभी की मिल गया था राहबर ,
कहा तभी की जाने मन न मौत से हो बेखबर ,
खुशामदों में तू न पद खुशामदी तबाह्कुन ,
तू याक्बत  की फिकर कर तू याक्बत की राह चुन .

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