रविवार, 12 सितंबर 2010

६४ -रामायण

लंका दहन 
       ( १ ) 
आखिर से आये लंका में हनुमान जी ,
पहले देखी उन्होनें न थी ये कभी ,
आज दीदीनह ख्वाहिश ये पूरी हुई ,
देख ली कुछ दिनों ही में लंका पूरी ,
करके दर्शन विभीषण के वह आ गए ,
चंद घंटों तलक बाग़ में वह रहे .
          ( २ )
लोग कहते थे उसको अशोक का वन ,
सच तो ये है निराली थी उसकी फबन ,
फूल फल ही से सारा लड़ा था चमन ,
देख कर दिल होता था हर इक का मगन ,
घुमते घामते आ गए बाग़ में ,
फिर ये सोचा बाग़ ही में रहें .
            ( ३ ) 
छुप गए वह दरख्तों ही के ओट में ,
सच तो ये है न हे वह किसी टोट में ,
फाग खेली इन्होंने न लंगोट में ,
आई लज्जा इन्हें राम की चोट में ,
ज्यों ही नजरें झुकीं माजज्ह हो गया ,
जिस की थी खोज उनको वह हीरा मिला .
            ( ४ ) 
पेड़ के नीचे बैठी थी इक नाजनीन ,
हुश्न में उसका सानी था कोई नहीं ,
ताब किस में थी जो आये उसके करीं ,
चाँद सूरज उसी के थे जेर नगीं ,
नाजनीन थी वह या एक देवी थी वह ,
राम के नाम की माला जप्ती थी वह .

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