शनिवार, 11 सितंबर 2010

५९- रामायण

                    ( १३ ) 
मुझमें और बाली में उल्फत थी बड़ी गहरी नदीम ,
राक्षस आया नगर में नाम मायावी नदीम ,
हम ताकिब के लिए दौड़े वह था जिद्दी नदीम ,
पीछा करते करते पहुंचा गार में बाली नदीम ,
मुझको बाहर रोककर उसने कहा ए जाने मन ,
जब तलक मैं न आ जाऊं ये तुम्हारा है वतन .
                   ( १४ ) 
इक महीने तक वहां बैठा रहा खाए उधार ,
इक दिन क्या देखता हूँ वां से निकली खूं की धार ,
मैंने समझा भाई मेरा हो गया उसका शिकार ,
आई मेरी भी मुसीबत इसलिए छोड़ा वह  गार ,
गार पर पत्थर बड़ा सा रखके वां से आ गया ,
भाई का गुस्सा ही आखिर हाय मुझको खा गया .
                  ( १५ ) 
कुछ  दिनों के बाद मैं क्या देखता हूँ जाने मन ,
भाई मेरा खुश व खुर्रम आ गया अपने वतन ,
मैं ख़ुशी से नाचता था और था दिल में मगन ,
भाई समझा मेरे मरने पर है खुश भाई का मन ,
आ गया गुस्सा उसे और सुर्ख आँखें हो गईं ,
उसका गुस्सा क्या हुआ सब नियामतें ही खो गईं .
                  ( १६ ) 
मुझको इतना मारा उसने हो गया मैं नीम जान ,
तख़्त छीना राज छीना हो गया मैं नातवान ,
माल दौलत साड़ी मेरी हो गई मुझसे नहाँ ,
छीन ली बीवी भी मेरी खूबसूरत और जवां,
मैं वतन वाला भी होकर बन गया हूँ बेवतन ,
चांटा हूँ जंगलों की ख़ाक मैं ए जाने मन .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें