बुधवार, 15 सितंबर 2010

८२-रामायण

                    (४१ ) 
लखन ने पाई जिन्दगी फिजां में नूर छा गया ,
खिजां का दौर लड़ गया नफास नफास महक उठा ,
खुशी का दौर आ गया गामी का दौर चल बसा ,
मिली थी हक़ को जिन्दगी की रंग झूठ का उड़ा ,
गरूरेकबर मिट गया की जिन्दगी की जय हुई ,
मिटी थीं नखवती भी की आजजी अजय हुई .
                  ( ४२ ) 
उसी समय ही लैश हो चले सभी वह युद्ध  को ,
तब इन्द्रजीत आ गया गरूर में वह मस्त हो ,
की अपने बल पे नाज था चला वह बल में चूर हो ,
हवास गुम ही हो गए दी गफल उसने अपनी खो ,
मुकाबला हुआ तभी मुकाबले की जोड़ थी ,
ये जंग कज्रो इश्क के जहां में एक मोड़ थी .
                  ( ४३ ) 
बढे चलो बहादुर कहा यों ही पुकार के ,
ये आन का सवाल है है की रख दो जान को परे ,
की आबरू तुम्हीं तो हो निकाल दो स्वदेश से ,
है तेंग चमचमा रही की जान गुरेज में पड़े ,
न माल  का ख्याल है न जान का ख्याल है ,
अगर है कुछ ख्याल सिर्फ आन का ख्याल है .
                ( ४४ ) 
हुई  तभी तो जंग ही की खेत कट के रह गया ,
हुआ तभी तो इन्द्रजीत और लखन का सामना ,
की खून की नदी बही मिला  सनम न और खुदा ,
चले ज्यादह इतने तीर आसमान घिर गया ,
कभी थे वार तेग के कभी तो बर्छियां  चलीं ,
कभी चले थे गुरेज भी की खेतियाँ ही कट गईं .

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