सोमवार, 6 सितंबर 2010

४1-रामायण

                                    (९५)
इन्हें मौत घींच के लाई है करें आओ इनका भी  सामना ,
नहीं मौत कुत्तों की हम मरें करें आओ इनका मुकाबला ,
कहा राम  चन्द्र ने जाने मन मुझे देख लेने दो तुम ज़रा ,
ज्यों ही देखा राम ने यों कहा हुए भरत दुःख से हैं आसना ,
नहीं गुस्सा बाजिब है भरत पर हैं मुसीबतों में घिरे हुए ,
की मरे हों को है मारना वह तो है दुखों से मरे हुए .
                                   ( ९६ )
ज्यों ही आये राम के सामने गिरे पाँव ही में वह यकबयक ,
हुए अश्क आँखों से फिर रवां न थी चेहरे पर वह चमक दमक ,
न थी आरजू न उमंग न थी उनकी आँखों में कुछ चमक ,
उन्हें राम ही की तलाश थी की थी राम चन्द्र से दिल में धक् ,
उन्हें सीने से फिर लगा लिया हुई पूरी दिल की ये आरजू ,
की थे नारी नर सब तक रहे हुए याक्बत से वह सुर्खरू .
                                   ( ९७ )
लिए तीनों माओं  के पैर छू  थी ख़ुशी में पागल कौशल्या ,
हुई जर्द कैकेई शर्म से थी ख़ुशी में मस्त सुमित्रा ,
किये जानकी ने भी पाँव छू उन्हें हक़ मुहब्बत का मिल गया ,
हुए लक्ष्मण तभी सुर्खरू उन्हें प्यार सब ही का था मिला ,
तभी राम लक्ष्मण को गुह मिले मिली उनसे भी आशीष फिर ,
की है ये निजात का रास्ता यही याक्बत का बना शिकार .
                                  ( ९८ ) 
जो सूना पिताजी तो च बसे हुए राम चन्द्र अधीर ही ,
हुए लक्ष्मण भी उदास से हुए अश्क और भी जाकी ,
तभी जनक राज भी आ गए की तसल्ली दिल की भी हो गई ,
गिरे जनकराज के पाँव में तभी दिल की पल में कली खिली ,
उसी वक्त सीने से लग गई की बहार गुलशन में आ गई ,
हुआ दूर रुखसत खिजां फिर की जो रंग अपना दिखा गई .

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