शनिवार, 14 अगस्त 2010

रामायण -34

( ६७ )
नहीं तुम पे बाजिब है बात ये कि जहां से तर्क दफा करो ,
जो दे आसरा तुम्हें जीस्त में तुम उसी के साथ दगा करो ,
तुम अकेला छोड़ दो न एक पल मेरे वालिदें की दवा करो ,
मेरा चाहते हो जो हुकुम गर मुझे आज तुम न खफा करो ,
यही आफत का है रास्ता यही तो स्वर्ग की राह है ,
मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो यही मेरे दिल ही की चाह है ।
( ६८ )
ये सुना सुमित्रा तो रो पड़ा सुना हुकुम राम का चल दिया ,
नहीं दिल में ताब व तवाल थी कुछ वह तो हाय ख़ाक में मिल गया ,
दिया हांक रथ ही को वापिसी कि वह अब अयोध्या को चल पडा ,
ज्यों ही वह अयोध्या में आ गया कि था इक हुजूम में घिर गया ,
ये खा कि राम हैं अब कहाँ उन्हें छोड़ आये हो किस तरफ ,
ये खा कि वह तो हैं चल दिये तभी आ गया हूँ मैं इस तरफ ।

( ६९ )
गया फिर सुमित्रा रनिवास में जहां राजा दशरथ थे सो रहे ,
ज्यों चाप पैरों की थी सुनी वह तो एक पल ही में जाग पड़े ,
हैं कहाँ मेरे लाडले कहो क्यों न साथ वह आ गए ,
कि है दिल का चैन मिटा मिटा मुझे ले चलो जहां वह गए ,
मुझे उनके बिन न करार है कि सुकून सारा ही लुट गया ,
नहीं वस्ल मेरे नसीब में कि हूँ उनके हिज्र में जल रहा ।
( ७० )
कही बात सारी सुमित्रा ने लुटा राजा दशरथ का अचिन तब ,
हुए हाथ पाँव ही सल मन कि था दिल को उनके करार अब ,
गिरे औंधे मुंह वह जमीन पर मिटा आसरा ही तो दिल का तब ,
इन्हें यों हुआ महसूस फिर कि है आखिरी ही तो वक्त अब ,
कहा राजा दशरथ ने राम ही भरी एक ठंडी आह फिर ,
गई एक दम ही से जान निकल रही दिल की दिल ही में चाह फिर .

रामायण -33

( ६३ )
ये खबर नगर में भी आ गई श्री राम वन को हैं जा रहे ,
कि हैं संग लक्ष्मण जानकी वह इसी ही ओर हैं आ रहे ,
कि है हुकुम चौदह साल का न वह मेल दिल में हैं ला रहे ,
यही यकबत का असास है ये विचार दिल में हैं आ रहे ,
ये सुनी खबर सभी रो पड़े चले रथ के पीछे ही पीछे सब ,
ज्यों ही देखा राम ने यों कहा - सभी आये हैं हुआ अब गजब ।

( ६४ )
हुई आखिर से तदवीर ये ज्यों ही आधी रात हो चल पड़ें ,
इन्हें सोता छोड़ के चल ही दें तभी जंगलों ही की राह लें ,
ज्यों ही उठे ये हमें पायें मत तभी अपने अपने घर बसें ,
हुई कारगर तदवीर ये गए गए रामम गए गए में गए वहां,
गए राम गुह के पास फिर था वह भील कौम का यानि सरह ,
वहां बड के दूध से आखिर से दिया अपनी जुल्फ को और रह ।
( ६५ )
कहा फिर सुमंत्र से राम ने चले जाओ अब तुम अयोध्या ,
लो ये रथ है ले जाओ वापिस अब यही तुम से मेरी है इल्तजा ,
कि हैं गंगा पार ही कर रहे कि है ईश्वर की सभी दुआ ,
हमें और कुछ नहीं चाहिए के है अब ख्याल ही दूसरा ,
कहो वालिदें को सलाम ही कि है अच्छे लक्ष्मण जानकी ,
यही देखना न उदास हो कि सबके चेहरे पे हो हंसी ।
( ६६ )
ये कहा कि सुमित्रा ने जाने मन मुझे अपने साथ ही ले चलो ,
मैं तो सिर्फ आप का दास हूँ मुझे खुश ही रखना है आपको ,
मुझे जिन्दगी नहीं चाहिए मेरी जिंदगानी तो आप हो ,
मैं तो साथ आपके जाउंगा मुझे साथ चलने का हुकुम दो ,
ये सुना तो राम ने यों कहा कि सुमंत्र साथ न तुम चलो ,
नहीं बात ये तो दुरस्त है कि अकेला साह को छोड़ दो .

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

रामायण -32

( ५९ )
दिया दिल को धीरज राम ने कहा आप मत घबराइये ,
कि न दिल में मैल हो आपके ज़रा मेरी जां मुस्कराइए ,
कि हैं साल चौदह साल मुख़्तसर कि न रंज दिल में यों लाइए ,
नहीं रोने धोने से काम कुछ मुझे दिल की बात बताइये ,
कहा ये तो तीनों ने ली विदा पहले वालिदः के नियाज को ,
कहा जाने मन चले अब तो हमें अब तो जाने का हुकुम दो ।
( ६० )
ये सुना तो बिजली तो गिर पडी दिल पे कारी सी चोट इक ,
मुझे साथ वन ही में ले चलो कि है दिल पे भारी चोट इक ,
नहीं मुझ से सहन ये हो सके ये है हाय नारी की चोट इक ,
किया उसने रुसवा जहां को है जग पे भारी ही चोट इक ,
कहा राम ने नहीं दोष कुछ ये ये तो अपने लिखे की बात है ,
नहीं भाग देखा किसी ने भी ये तो भाग देखे की बात है ।
( ६१ )
ये कहा तो पाँव ही छू लिए चले छोटी रानी के पास में फिर ,
कि दी शीष उसने भी आखिर से थी लौट आने की आस फिर ,
कहा पीठ देखी है जिस तरह है उसी पे चेहरा भी रास फिर ,
कि तू लक्ष्मण नहीं भाई है कि राम ही का है दास फिर ,
लिया चूम तीनों को फिर मानों कि वह करके रुखसत ही हो गए ,
ये थे राम लक्ष्मण व जानकी कि जो आन ही पर थे मर मिटे ।
( ६२ )
कहा राजा दशरथ ने इस तरफ कि सुमंत्र सुन तो लो ,
मेरे राम सीता व लक्ष्मण उन्हें सैर करने को ले चलें ,
उन्हें साथ लेकर जो जाओ जी उन्हें साथ लाकर ही तुम लौटो ,
ये न हो के आते ही सामने बड़े दुःख से हाथ ही तुम malo ,
ये सुना जो हुकुम तो चल पडा लिया इक हसीन सा रथ मयन ,
उसी वक्त घोड़ों को जोड़कर हुआ फिर तो तीनों का वन गमन .

रामायण -31

( ५५ )
ये सुना तो राम ने यों कहा मेरी जान हाजिर है में जान ,
मुझे साथ लेने में आर क्या कि है जब तुम्हारा ही चाहे मन ,
यही राजा तो चले चलो कि है वन ही अपना तो अब वतन ,
मुझे हुकुम बाप अजीज है यही यही दौलत और यही मेरा धन ,
मेरी क्या शक्ति कि मैं हुकुम दूँ मेरा हौसला कि मैं टाल दूँ ,
मेरे साथ चलने की चाह है तो मैं कैसे तुम को नहीं कहूँ ।
( ५६ )
गए राजा दशरथ के पास फिर श्री राम सीता व लक्ष्मण ,
कहा कैकेई ने कि - आओ यहाँ हुए अब तो जोगी हो जाने मन ,
ये जो वस्त्र हैं ये उतार दो कि हो जोगियों की तो अब फबन ,
ये ही वस्त्र तुम्हारे ही वास्ते ताकि मन हो जैसा हो वैसा तन ,
उन्हें हुकुम दे के कहा मानो यही याकबत की तो राह है ,
तुम्हीं लाज रखोगे बाप की यही तुम्हारे वालिद की चाह है ।
( ५७ )
ये सुना तो वस्त्र बदल लिए नहीं दिल में उनके था रंज कुछ ,
यही उनके लब पे था आखिर से नहीं चाहिए हमें कंज कुछ ,
नहीं इश्क हशरत की चाह कुछ नहीं नियामतों का है रंज कुछ ,
हमें हुकुम वालिद अजीज है यही नुक्ता समझेंगे संज कुछ ,
खुली आँख दशरथ की रो पड़े कहा एक ही को था रो रहा ,
मुझे रंज तिगुना तू दे रही मुझे कैकेई ये क्या हो गया ।
( ५८ )
मेरा राम जिस्म की रूह है वह गया तो रूह निकल गई ,
मेरी सीता घर की है लक्ष्मी वह गई तो रूठेगी लक्ष्मी ,
मेरे लक्ष्मण से ही रौनकें हैं बसे उसी से अवधपुर ही ,
चले आज तीनों ही छोड़कर तुझे क्या हुआ अरी कैकेई ,
मैं तो लुट गया मैं तो मर गया मेरा नूर आँखों से छिन गया ,
मुझे इश्क से क्या है वास्ता मुझे तख़्त व ताज से क्या मिला .

रामायण -३०

( ५१ )
ज्यों ही सुनी लक्ष्मण ने खबर वह भी राम के पास आ गए ,
कहा ऐसा लगता है राजा जी तो बुढापे में सठिया गए ,
उन्हें इश्क की है चटक लगी वह तो हुश्न ही पर हैं छा गए ,
उन्हें जिन्दगी से है काम क्या वह तो तंग हमसे हैं आ गए ,
मैं तो ऐसी बस्ती को छोड़ दूँ मुझको ऐसी नगरी से काम क्या ,
जहां दिल के सब ही गुलाम हों कि न हों दिमाग से आसना ।
( ५२ )
मैं तो साथ आपके जाउंगा मुझे जंगलों ही में ले चलो ,
ये तो देश पापी का देश है नहीं कोई अपना जो साथ हो ,
वहां आप हों वहीँ मैं भी हूँ कि न आप समझ कि हम हैं दो ,
मैं तो बस केवल हूँ आपका नहीं जानता कि हैं हम भी दो ,
मुझे हुकुम सादर हो जाने जां कि मैं जिंदगानी भी वार दूँ ,
मुझे है अकीदत ही आपसे कहो साथ आपके मैं चलूँ .
( ५३ )
ये सुना तो राम ने यों कहा - नहीं बाजिब तुम पे ये लक्ष्मण ,
करो सेवा मां बाप की यही फर्ज अपना है जाने मन ,
यहाँ राजपाट का काम है यहीं तुम लगाओ अपना मन ,
मुझे हुकुम वालिद अजीज है न यों मेरी खातिर जलाओ तन ,
यहाँ इशरतें यहाँ शरबतें यहाँ नियामतें यहाँ दौलतें ,
वहां जंगलों में मुसीबतें हैं नित नई वहां आफतें ।
( ५४ )
कहा लक्ष्मण ने कि भाई जी मेरी अर्ज ये ही है आपसे ,
मुझे नरक में न धकेलिए मुझे दूर रखिये ये पाप है ,
यहाँ मोह माया का राज है नहीं कोई प्यार भी जो करे ,
मेरे वालिदें तो हैं आप ही नहीं तख़्त मुझको ये चाहिए ,
जहां आप हैं वहां इशरतें जहां आप हैं वहां शरबतें ,
जहां आप हैं वहीँ दौलतें जहां आप हैं वहीँ नियामतें .

बुधवार, 11 अगस्त 2010

रामायण -29

( ४७ )
मेरी मां ने मुझको ये सीख दी कि पति तेरी है जिन्दगी ,
तेरी याकबत का वह रास्ता कि तू कर उसी ही की बंदगी ,
जहां हो पति वहीँ तू भी रह यही बेखुदी यही आग ही ,
कि तू उसके सुख में सुखी रहे कि तू उसके दुःख में रहे दुखी ,
मुझे साथ जंगल में ले चलो यही इल्तजा यही अर्ज है ,
मुझे आप ही से तो प्यार है मुझे इश्क सादिक का मर्ज है ।
( ४८ )
मुझे वालिदें भी अजीज हैं मुझे आप भी तो अजीज हैं ,
मेरी जिन्दगी का हो माह्सिल मेरी आप इक ही तो चीज हैं ,
मुझे प्यार आप से है बहुत मेरे प्यार की दहलीज है ,
मेरी जिंदगानी है आपकी मुझे आप ही तो अजीज हैं ,
जहां पर पसीना गिराओगे वहां खून अपना गिराऊंगी ,
मैं तो साथ आपके जाउंगी मैं तो साथ आपके जाउंगी ।
( ४९ )
मुझे धूप छाँव से क्या गरज मुझे गर्मी सर्दी से काम क्या ,
मुझे और कुछ भी न चाहिए मुझे साया आपका मिल गया ,
मुझे घास फूलों की सेजहै मुझे खार जारों से वास्ता ,
मुझे चरण आप के चाहिए यही याकबत का है रास्ता ,
मुझे साथ जंगल में ले चलो यही आपसे मेरी अर्ज है ,
ये न हो कि नाहक ही मेरा खूं कभी आपही के तो सर चढ़े ।
( ५० )
ये सुना तो राम ने यों कहा - है अगर तुम्हारी यही राजा ,
तुम्हें साथ चलने की आरजू मेरे मुझे साथ लेने में आर क्या ,
मुझे और कहने से फायदा तुम्हें खुद पता है भला बुरा ,
मुझे दखल देने से काम क्या कि है दुःख उठाने का होंसला ,
यही राजा तो चलो मेरे साथ जंगल में जाने मन ,
नहीं मोह माया से किया गर्ज चलो हम तो जायेंगे अब तो वन .

रामायण -28

( ४३ )
ये सुना तो राम ने यों कहा - मेरी जान तुम हो निढाल क्यों ,
मेरे प्यार का तुम्हें वास्ता कि दिल को आखिर मलाल क्यों ,
कि है इश्क मेरी भी जिन्दगी कि है उलटी -उलटी ये चाल क्यों ,
मुझे हाले दिल तू कहो ज़रा कि आज शीशे मैं बाल क्यों ,
यों ही चुटकियों में कटेंगे ये कि हैं साल चौदह मुख़्तसर ,
यहाँ दौलतें हैं यहाँ शरबतें कि नहीं यहाँ तुम्हें कुछ खतर ।
( ४४ )
मेरी जान जंगल में मत चलो कि हैं रास्ते में मुसीबतें ,
नहीं इशरतें नहीं नियामतें कि वहां तो सिर्फ हैं आफतें ,
नहीं सेज फूलों की है वहां नहीं अपने देश की सी राहतें ,
कि वहां है इंसान जानवर कि नहीं यहाँ की सी चाहतें ,
मेरी जान राहों में खार हैं बड़े टेढ़े मेढ़े हैं रास्ते ,
कभी गरम हैं कभी सर्द हैं नहीं दिन वहां के हैं एक से ।
( ४५ )
है बजा तुम्हें के रहो यहाँ कि करो सेवा अम्मा और बाप की ,
वहां हर कदम पर हैं खिदमतें यहाँ पाँव धोतो हैं हर ख़ुशी ,
कि हो जब तबियत उदास तो चली जाना फ़ौरन जनकपुरी ,
वहां हर कदम पर मुसीबतें यहाँ ऐश व इशरत की जिन्दगी ,
वहां घास खाने को है फकत यहाँ हर किस्म की हैं नियामतें ,
यहाँ खूब अच्छे लिबास हैं वहां तन के ढकने की आफतें ।
( ४६ )
ये सुना तो सीता ने यों कहा - मुझे सदका आपकी जान का ,
नहीं हर्ष माल व मनाल की मुझे आप ही का है आसरा ,
मेरी नाव डूबी बचाइये किहैं आपही मेरे ना खुदा ,
मैं तो ज़िंदा आपके दम से हूँ नहीं ऐश व इशरत को दिल दिया ,
नहीं नियामतों की है चाह कुछ नहीं सेज फूलों की चाहिए ,
नहीं शरबतों पे है जान दी मुझे राह काँटों की चाहिए .

रामायण २७

( ३९ )
तुम्हें बाप का तो ख्याल है मेरी जान मेरी भी बात सुन ,
तुम्हें फर्ज प्यारा है आज तो तुम्हें फर्ज ही की लगी है धुन ,
तुम्हें मां का प्यार है कह रहा ज़रा मां के दिल की भी बात सुन ,
मेरी जान मेरे भी वास्ते कोई राह चुन कोई राह चुन ,
मेरे लाडले मेरी जिन्दगी मैं ही जानती जो है दुःख सहे ,
ज़रा राजा जी से तो पूछ लो जो है प्यार सिक्कों में तौलते ।
( ४० )
नहीं चाहती हूँ मैं दौलतें नहीं चाहती हूँ मैं इशरतें ,
नहीं चाहती हूँ मैं हश्मतें नहीं चाहती हूँ मैं शौहरतें,
मेरी आँख से तुम अलग न हो - यही चाहती यही ख्वाहिशें ,
कि न बाल बांका भी हो सके कि न आयें दुनिया में आफतें ,
तुम्हें मैंने पाला है प्यार से तुम्हें मेरे पया की है कसम ,
मुझे साथ लेकर न जाओगे तो मैं छोड़ दूंगी ये अपना दम ।
( ४१ )
ये सुना तो राम ने यों कहा - मेरी जान यों न निढाल हो ,
न तू आंसुओं से यों चेहरा धो न तू हार अश्कों के यों पिरो ,
मैं तो लौट कर फ़ौरन आउंगा कि तू नूर आँखों का यों न खो ,
तुझे वास्ता मेरी जान का यों न अपने दिल का करार खो ,
मुझे हुकुम वालिद अजीज है नहीं कोई रास्ता जो रोक दे ,
ये कहा तो पाँव ही छूते कहा - अब तो जाने का हुकुम दे ।
( ४२ )
कहा जानकी ने यों राम से मेरे सर का ताज है आप ही ,
मेरे दिल का चैन हैं आप ही मेरी आप ही तो हैं जिन्दगी ,
यही इल्तजा यही अर्ज है यही हट मेरी यही जिद मेरी ,
जहां आप जायेंगे जाने मन वहीँ साथ आपके जाउंगी ,
मेरी आप आँखों का नूर हैं न हों आप दिल को हो क्यों सुकूं,
मुझे साथ जंगल में ले चलो जहां आप हों वहीँ मैं रहूँ .

रामायण -26

( ३५ )
जो नहीं देखा उसने तो यों कहा मेरी जान बोलो कहाँ थे तुम ,
तुम्हें ढूंढते मैं तो थक गई कहाँ हो गए मेरे लाल तुम ,
हूँ मैं तुम्हारी याद में बावरी कि मैं प्यार ही के लुटाऊं खुम ,
मेरे लाडले मेरे सुख भी ले कि है पागल अब तो तुम्हारी उम ,
मेरी आँख का तुम्हीं नूर हो मेरे दिल का तुम ही सुरूर हो ,
कि हो तुम तो बहार है , है खिजां जो आँख से दूर हो ।

( ३६ )
कहा राम चन्द्र ने - जाने मन मुझे हुकुम बाप का ये मिला ,
कि महल ये फ़ौरन ही छोड़ नहीं हुकुम माल व मनाल का ,
रहो वन में चौदह साल तक यही है मेरी तुम्हें आज्ञा ,
तेरी साध पूरी ये हो गई मुझे हुकुम दो मैं तो आउंगा ,
मुझे आबरू का ख्याल है न ही मोह माया से मोह कुछ ,
कि जो हुकुम वालिद है उसके आगे तो तख़्त व ताज है चीज तुच्छ ।
( ३७ )
ये ही सुन कौशल्या ने यों कहा - मेरे लाल हाय मैं लुट गई ,
मेरे दिल को तुम से करार है कि है जिस से कायम ये जिन्दगी ,
कि है दिल में तुम ही ही बुलबुले कि है दिल में तुम से ही बेखुदी ,
तुम ही मेरी आँख का नूर हो कि है तुम से मुझ में भी आग ही ,
कि मैं साथ तुम्हारे ही आउंगी कि ये सेज काँटों की मुझे मुझे है ,
मुझे ये सब इशरत न चाहिए ये तेज तुम्हारा ही तेज है ।
( ३८ )
ये सुना तो राम ने यों कहा मेरी मां ज्यादह तू तो गम न कर ,
कि ये अरसा बेहद कलील है कि साल चौदह तो मुख़्तसर ,
ये तो बीत जायेंगे एक दम कि यों सर्द आहें न आज भर ,
मेरी याद तुमको सताएं जब तू तो बीती बातों को याद कर ,
मेरा फर्ज है यही जाने मन कि मैं हुकुम वालिद को मां लूँ ,
यही हक़ मेरा यही फर्ज है कि मैं इन पे जीवन भी वार दूँ .

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

रामायण -25

( ३१ )
ये सुना तो दशरथ जी गिर पड़े उन्हें दिल का दौरा पडा मानो ,
हुए यकबयक बेहोश वह कि था कांपता उनका तन बदन ,
कि थे अश्क आँखों से बह रहे कि था चाँद को लगा ग्रहण ,
खुली आँख फ़ौरन तो यों कहा कि है राम जीवन का मेरे धन ,
आरी कैकेई मुझे ये बता मेरी जात से तुझे बैर है ,
मेरा राम आँख का नूर है न ही भरत से तुझे बैर है ,
मेरा राम आँख का नूर है न भात लाल भी गैर है ।
( ३२ )
ये कहा तो दशरथ जी फिर गिरे हुए यकबयक बेहोश फिर ,
हुए अश्क आँख से फिर रवां गया बुलबुला और होश फिर ,
कहा राम चन्द्र से आओ तुम भरे आखिर से उनके गोश फिर ,
रही बेक़सूर वह आप ही दिया राजा दशरथ को दोष फिर ,
ये कहा कि बाप का हुकुम है इसे कान खोल के तुम सुनो ,
तुम्हें हुकुम चौदह साल चलो राह जंगल की आज तो ।
( ३३ )
यूँ सुना तो राम ने यों कहा मुझे हुकुम ये मंजर है ,
मेरे दिल को इससे करार है मेरे दिल को इससे सरूर है ,
मेरी आँख होगी न तर कभी मेरे सर को इससे गरूर है ,
मेरी आँख नूर से पुर हुई मेरा दिल नशे में ही चूर है ,
मुझे हुकुम देते हैं ये पिटा मेरे भाग चेते हैं आज तो ,
ये है मौक़ा नादिर न खोउंगा मुझे वर में जाने का हुकुम है ।
( ३४ )
ये सुना तो दशरथ जी रो पड़े कहा कैकेई न तू जुल्म कर ,
अरी ईश्वर से तू खौफ खा अरी कर न मुझको तू बेबसर ,
ये कहा तो बेहोश हो गए रही उनको अपनी न कुछ खबर ,
गए राम बाप को छोड़ कर कि कौशल्या के द्वार पर ,
कि थी टकटकी लगी द्वार पर हुई बूढी आँखों में रौशनी ,
कि थे अश्क आँखों में आ गए कि हयात उसकी संवर गई .

सोमवार, 9 अगस्त 2010

रामायण -२४

( २७ )
ये सुना तो दशरथ तड़प उठे कहा - आस्तीन का सांप है तू ,
तेरा भेद आज तो खुल गया ये अयाँ हुआ तेरा क्या है खू ,
तेरे दिल में पहले ही चोर था तेरे मन में दुई की देख बू ,
तेरा हुश्न क्या है फरेब है तेरे इश्क में है होश की बू ,
यही आजू है तेरी बता कि हो भरत लाल ही हुक्मरान ,
तेरी बात पूरी ये हो गई कि मैं साक्षी जमीं आसमान ।
( २८ )
अरी कैकेई ज़रा तरस खा ज़रा रहम कर मेरे हाल पर ,
वही मेरी आँख का नूर है मुझे कर न जालिम तू बेबसर ,
मेरी राम चन्द्र हैं आत्मा उसे आँख से न तू दूर कर ,
अरी बेवफा मेरे मुल्क पर ज़रा रहम की भी तू कर नजर ,
मेरे दिल का वही सरूर है मेरे दिल को उससे करार है ,
वह नहीं तो बाग़ में है खिजां है अगर तो फसले -बहार है ।
( २९ )
नहीं बात आपकी मानती है ये अच्छा कॉल ही हार दो ,
जो ये ढोल पीटा है फोड़ दो ये थूक फेंका है चाट लो ,
जो कहो वह कर के दिखाओ भी न यों मोह माया में अब पड़ो,
ये यों वंश -वंश की छोड़ दो ज़रा उनके रिश्ते पे भी चलो ,
ये सुना तो दशरथ जी रो पड़े हुए एक चुटकी में नम जान ,
कहा ईश्वर का तू खौफ खा न जला तू मेरा यों आशियाँ ।
( ३० )
मेरे राम बैठेगे तख़्त पर उन्हें वन में कैसे मैं भेजूंगा ,
मेरा हाल अबतर है कर दिया कि ये बात वापिस मैं कैसे ले लूँ ,
तू ही लाज रख मेरी आन की तेरे पाँव हाय मैं ले पडूँ
तेरे दिल में क्या है बता मुझे तेरी बात दीगर मैं मान लूँ ,
सुनी बात कैकेई ने भर गई कहा कॉल का ये ही पास है ,
मुझे पता था कि दिल आपका बड़ा मोह माया का दास है .

रामायण -23

( २३ )
सुना कैकेई ने संभल गई ज़रा और आगे सरक गई ,
बड़े प्यार से बड़े मोह से तभी बांह गर्दन में दाल दी ,
कहा जाने मन मेरी अर्ज है यही बात मेरी है जिन्दगी ,
मेरे दम से युद्ध में आपकी मेरी जान जान भी बच गई ,
तभी आप बोले थे मुझसे यों मेरी जान तूने बचाई है ,
तुझे मरहबा तुझे आफरीन कि बधाई है कि बधाई है ,
( २४ )
मेरी खिदमतें काम आ गईं मेरी सेवा देख के खुश हुए ,
मुझे आप ही ने तो जाने मन वहां घोर युद्ध में वर दिये ,
कहा जो भी ख्वाहिश हो कैकेकी तू ये वर लपक के ही मांग ले ,
मुझे कॉल दे के न हारना मुझे आप ही की तो आस है ,
मेरा पहला वर ये है जाने मन मेरे भरत लाल को तख़्त दो ,
मुझे दूसरा वर ये मिले श्री राम को वनवास हो ।
( २५ )
ये सुना तो दशरथ जी चौंक उठे कहा होशकर अरी बेहया ,
तेरा राम से क्या बिगाड़ है न तू राम चन्द्र पे कर जफा ,
वह तो वर्गेगुल से भी नरम है वह तो धूप सह न पायेगा ,
वहां बरखा कैसे सहेगा वो वहां जाड़ा भी तड्पाएगा ,
कि उस ने मेरी भी जिन्दगी मेरे हाल ही पे तो कर दया ,
तेरा क्या बिगाड़ा है ये बता मुझे आज सूझी क्या है भला ।
( २६ )
कहा कैकेई ने जबाब में मेरी जान आप न गम करें ,
ये तो आप ही ने कहा मुझे मेरी बात आप ही टाल दें ,
मुझे कॉल देने से फायदा ये है वर ये आप संभाल लें ,
मुझे दुःख है आपकी जात से मेरी अर्ज आप न अब सुनें ,
न ही मैंने आप से अर्ज की न ही मैंने आप से था कहा ,
खुद ही कॉल देते हैं आप भी खुद ही हार जाते हैं वर मिला .

रामायण -22

( १९ )
कहा राजा दशरथ ने जाने मन यों न दिल तू अपना उदास कर ,
तुझे मोतियों से मैं तौल दूँ ज़रा दिल की मेरी तू ले खबर ,
ज़रा हुकुम दे मुझे जाने जां नहीं प्यार मेरा है बेअसर ,
जो भी चाहे मुझसे तू मांग ले कि तू दिल में अपने न रंज कर ,
कहा कैकेई ने कि सोचलो यों ही हाथ मलमल के रोओगे ,
यों ही आंसुओं की झड़ी लगे यों ही चेहरा अपने को धोओगे ।
( २० )
कहा राजा दशरथ ने - गम न करो मुझे अपने दीदे का पास है ,
तेरे दिल में जो कुछ है मांग ले यही तो कॉल मेरा असास है ,
ये निभाऊं तो है सुकून मुझे ये न हो तो दिल भी निराश है ,
यही अपनी खू यही आबरू यही धरम की तो असास है ,
कहा कैकेई ने कि - कॉल दो कहा तुफ्र है जो पीछे हते ,
यही रीति है रघुवंश की यही कॉल जिस पर हैं हम चले ।
( २१ )
सुना कैकेई ने तो यों कहा ज़रा अब भी सोच तो लीजिये ,
कहीं आर हो कहीं हो झिझक मुझे पहले बतला दीजिये ,
कहीं टूट जाए न दिल मेरा मुझको अब भी चाहें तो नाटिये ,
जो भी जी में आये मैं मांग लूँ मुझे आप रुसवा न कीजिये ,
कहा राजा दशरथ ने गम न खा मेरी जां तुझ पे निसार है ,
मेरे दिल को तुझसे सुकून है मुझे कॉल देने में आर है ।
( २२ )
कहा कैकेई ने वचन भी दो यों ही बात करने से फायदा ,
मुझे धोखा देने से फायदा यों ही आह भरने से फायदा ,
नहीं जानकहने से फायदा नहीं मुझ पे मरने से फायदा ,
मुझे कॉल दे दो तो बात है तभी प्यार करने से फायदा ,
सुनी बात राजा ने यों कहा - मेरी जान कॉल हूँ दे रहा ,
जो भी चाहे तू मुझ से मांग ले यही कह रहा हूँ मैं वरमुला .

रामायण -२१

( १५ )
गई कोप भवन में कैकेई हुई उलटी हर इष्टवां ,
किया धुप अन्धेरा ही चार शू हुई कोप से वर्क तपां ,
लिए गेसू उसने बिखेर फिर किया बिस्तर हर एक नीमजां ,
लिए जेवरात उतार सब गया मिल जमीन से आसमां ,
जब आये राजा तो भर पड़ी हुई नोंक झोंक इशारतन ,
वह तो छेड़छाड़ से जल गई हुआ सुर्ख गुस्से से तन मन ।
( १६ )
कहा राजा दशरथ ने - जाने मन तेरी क्यों तबियत उदास है ,
तेरे इश्क ही में तो बात है तेरा प्यार ही मुझको रास है ,
नहीं दिल में अर्स व होश की वो तेरा प्यार मेरा असास है ,
तू जो मेरे पहलू में आ गई कि ज़माना मेरे ही पास है ,
तेरे पाँव चूमेंगीं किस्मतें तेरे पाँव चूमेंगीं शर्बतें ,
ये जहां भर की है नियामतें ये जहां भर की हैं दौलतें ।
( १७ )
मुझे हुक्म दे तू अगर ज़रा तो फलक से तारे भी तोड़ दूँ ,
तू अगर कहे तो मैं माहताब को तेरी गोद में फैंक दूँ ,
तेरी लट मैं उलझी सवांर दूँ तेरी मांग मैं तारों से भर दूँ ,
तेरे वास्ते तो मैं जाने मन ये हयातें फानी भी वार दूँ ,
तू कहे तो खूं की नदी बहे तू कहे तो दिन न चढ़े कभी ,
ये तो इश्क जोई तू छोड़ दे तेरी जीस्त है मेरी जिन्दगी ।
( १८ )
ये सुना तो तन मन ही जल गया लगी राजा दशरथ को कोसने ,
ये तो सब खुशामद है आपकी ये तो लल्लो -पत्तो ही कर रहे ,
न यों मुझको ऐसे बनाओ जी ये तो बस फरेब है आपके ,
मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो मुझे कुछ न आपसे चाहिए ,
ये तो सिर्फ वक्त की बात है मेरे भाग में न रही ख़ुशी ,
कि मैं टुकड़े टुकड़े के वास्ते हूँ मैं राह आपकी देखती .

शनिवार, 7 अगस्त 2010

रामायण -20

( ११ )
तू राजा दशरथ की अब सगी मेरी बात रखियो ये याद तू ,
जिसे तू समझती है जाने जां नहीं है मुरव्वत की उसमें खू ,
नहीं आस्ति से वह आसना नहीं है मुहब्बत की उसमें बू ,
वहां घी के दीपक हैं जल रहे यहाँ तो अँधेरे ही चा र शू ,
यदि राज राम ने पा लिया तो भरत निभाएगा चाकरी ,
तेरी बंदगी तेरा माल व जर तेरी नौकरी तेरी जिन्दगी ।
( १२ )
वही खून की प्यासी है फिर रही तुझे मान जिस पे है जाने मन ,
वह कौशल्या तो है कैकेई न तू कर तबाह यों अपना तन ,
तुझे याकबत का ख्याल है तेरा पूत ही तो है तेरा धन ,
मेरे प्यार का तुझे वास्ता ज़रा कर यक शू तू अपना मन ,
तुझे भरत लाल की है कसम ज़रा दूर कर ले ये आफतें ,
तेरे हाथ ही में हैं शोहरतें तेरे पाँव चूमेंगिन शर्बतें ।
( १३ )
आरी बेवकूफ अब भी सुध भी ले ज़रा होश्कर ज़रा आँख खोल ,
क्या तू कर रही क्यों तू मर रही ज़रा दिल को अपने तू आज तोल ,
तुझे बात कहती हूँ काम की आरी दिल में रख तो न कोई झोल ,
ज़रा कब्ज ले ले तू हाथ में तेरे प्यार का है री खूब मोल ,
यही सब सुन यही तो मौक़ा है तू तो हाथ मलमल के रोयेगी ,
तुझे कोई पूछेगा भी नहीं तू ये नाव अपनी दुबोयेगी ।
( १४ )
+सुनी बात कैकेई ने ये जब कहा मंथरा से हुआ गजब ,
नहीं आँख फडकी थी बेबजह नहीं दिल धड़कता था बेसबब ,
तेरी बात पक्की है जाने मन मुझे इतना था मालूम कब ,
मुझे रास्ता तू ही दिखा तभी मिल सकेंगे मेरे भी लब ,
कहा मंथरा ने मानों यों ही - तू ये राजा से वर मांगले ,
मिले भरत लाल को राज और श्री राम को वनवास दे .

रामायण - 19

( ७ )
वही मेरे दिल का सरूर है वही मेरी नगाह का नूर है ,
वही मूसा और वह ही सला है वही कोह है वही टूर है ,
वही स्वर्ग है वही नरक है वही इकबत का गरूर है ,
वही जिन्दगी का है आसरा वही जिन्दगी का सरूर है ,
उसे राजपाट मिलेगा अब ये भी मसरदह सुन ले तू ,
तुझे जेवरों से मैं लाद दूँ तुझे हार दूंगी मैं नौलखा ।
( ८ )
तुझे बिस्तर दूंगी मैं कीमती कि है ईश्वर ने मेरी सुनी ,
हुई पूरी मेरी ये आरजू कि ताज राम के सर पर ही ,
मैं नाचती हूँ मैं झूमती हूँ मिरे चेहरे पर हंसी ,
जो भी चाहे मुझसे तू मांगले कि है बगिया दिल की मेरी हरी ,
यही वक्त है न चूक तू कि अब मेरी जान धोखा तू खाएगी ,
यही है घडी अब मांगले ये घडी गई तो न आएगी ,
( ९ )
सुनी मंथरा ने ये बात जब कहा - जाने मन ज़रा होश कर ,
तू कहे है लख्ते-जिगर जिसे उसे लग रहे हैं अजल से पर ,
तुझे अपनी होश भी है भला तुझे है जमाने की क्या खबर ,
श्री राम बैठेंगे तख़्त पर श्री राम बैठेगे तख़्त पर ,
यही धूम यही रंग है यही फिकर है यही चाल है ,
जिसे अपना कहती है तू भला वही जाने मन तेरा काल है ।
( १० )
तुझसे चक्की पिसवाई जायेगी तुझसे झाडू लगवाई जायेगी ,
तुझसे बिसता धुलवाए जायेंगे तुझसे चोटी करवाई जायेगी ,
तुझसे भांड़े मंज्वाये जायेंगे तुझसे रोटी पकवाई जायेगी ,
तुझसे कपडे सिलवाये जायेंगे तुझसे सब्जी मंगवाई जायेगी ,
तेरी कदर होगी तू ये फकत तुझको नंगा निचुड्वाया जाएगा ,
तुझसे भीख मंगवाई जायेगी तुझ पर रहम फरमाया जाएगा .

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

रामायण -18

( ३ )
किया राजा ने दरबार फिर लिया वजीर से मशवरा ,
ये तो राज राम को सौंप दो ये ही बोला हर इक वर मिला ,
कर दुआ कब्त की भी फिकर कुछ हो राजपाट में क्या पडा ,
हुआ दिन मुक़र्रर भी आखिर से सभी वक्त निश्चित भी हो गया ,
हुई गाँव -गाँव में घोषणा गई कूचे -कूचे में ये खबर ,
यही धूम -धाम थी हर जगह श्री राम बैंठेंगे तख़्त पर ।
( ४ )
वहां बच्चा -बच्चा ही साद था वहां नाचता था हर इक जवान ,
ये तो मसरदह था इक जा फिजा था मसर्रतों का बंधा समां ,
अजी दिल टटोले तो कोई यों कि ख़ुशी तो चेहरे से थी अयाँ ,
था हर इक जर्रा ही नाचतीं थी मसर्रतों की खुली दूकान ,
कि रोश -रोश पे लाताफतें कि चमन में तरावातें ,
कि कलि -कलि में नजाकतें कि था हुश्न या थी क्यामतें ।
( ५ )
सुनी मंथरा ने ये जब खबर गई कैकेई के वह पास ही ,
थी वह लाठी टेके ही आ रही कि थी पीठ पाँव को छू रही ,
हुई कैकेई के वह रूबरू तो वह चीख मार के रो पड़ी ,
कहा - हाय रे मैं तो लुट गई मैं तो मर गई मैं तो मर गई ,
सुनी बात उसने तो यों कहा - जरा ये बता ही ये बात क्या ,
किया तंग किसने है ये बता हुई छेड़ छाड़ क्या भला ।
( ६ )
किया नौकरों ने है तंग क्या ज़रा आज खोल तो अपना मन ,
नहीं भरत भी तो अब यहाँ गए साथ इनके ही शत्रुघ्न ,
कहीं दासियों ने है कुछ कहा - कहीं छेड़ बैठे हैं लक्ष्मण ,
हुई गुफ्तगू तेरी राम से आरी वह तो है दिल का चमन ,
है उसी से दुनिया ये बस रही है वही तो मेरी भी जिन्दगी ,
वही चमन है वही है सुकून वही इकबतवही बंदगी .

रामायण -17

( ६५ )
हर इक रानी न फूली अपने जामे में समाती थी ,
हर इक अपने तरीके ही से लाड उन पर लुटाती थी ,
हर इक रानी मुहब्बत के नए जादू जगाती थी ,
जिसे देखो वह अपने ही को खुश किस्मत बताती थी ,
मुरादों के दिनों में इश्क फरमाने का दौर आया ,
करिश्मे नित नए उल्फत के दिखाने का दौर आया ।
( ६६ )
यही इक ढंग है जिससे मुकद्दर जाग जाते है ,
जो कुदरत के हैं कायल वह उसी के गीत गाते हैं ,
उसी के फैज से हम जिन्दगी के लुत्फ़ पाते हैं ,
उसी का है करम हम दर्द सारे भूल जाते हैं ,
इनायत है उसी की मंजिले अव्वल हुई पूरी ,
निगाहों की तो दूरी है मगर दिल की नहीं दूरी ।

वनवास
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( १ )
अभी चंद दिन ही की बात है चले राजा जी रनिवास में ,
वह समझ रहे थे जवान हूँ चले इश्क ही की भडास में ,
यों ही जिन्दगी थी गुजर रही थे वह नाजनीनों की आस में ,
कभी चोंचले थे प्यार के कभी मस्त रूप की वास में ,
नजर आईने में पड़ी ज्यों ही मानों आइना ही तो गिर पडा ,
कभी बाल थे अपने देखते कभी देखते थे वह आइना ।
( २)
कहा दिल में अब तो मैं ढल चुका मेरी उम्र भी तो गुजर गई ,
न संवर सकी है ये जिन्दगी न ही यकबत की है बात की ,
इसी ऐश व इशरत में हो गई मेरी ख़त्म सारी ही जिन्दगी ,
यही बेरुखी जो रही सदा तो करूंगा कैसे मैं बंदगी ,
चलो राज राम को सौंप दूँ वही तो अवध का है हुक्मरान ,
वही तो दिलों का है बादशाह वही तो भविष्य का है पासवान .

रामायण -16

( ६१ )
ऋषि पहले तो सुनकर तमतमाए फिर मगर बोले ,
तुझे समझूंगा योद्धा तू अगर फिर से धनुष तोड़े ,
सुनकर रामजी ने फिर से उसके कर दिये टुकड़े ,
ऋषि ये देखकर मंजर तो क़दमों की तरफ दौड़े ,
हुआ अन्याय है मुझसे क्षमा की जे मुझे प्रभुवर ,
ये कहकर एक क्षण में हो गए रुखसत मानों मुनिवर ।
( ६२ )
जनकपुर में लिए बरात आ पहुंचे श्री दशरथ ,
जनकपुर के हर इक वासी ने खुश होकर किया स्वागत ,
उन्हें मेहमानवाजी से हुई थी ख़ास इक रगबत ,
मिले समधी जनक को क्या जमाने की मिली दौलत ,
जनक ने दिल में सोचा और दशरथ से यों फरमाया -
ये चारों लाडले दे दो इन्हें हूँ मांगने आया ।
( ६३ )
सजी बरात चारों की ब्याही राम से सीता ,
भरत ने मांडवी पाई बधी से उसको ब्याहा था ,
थी लक्ष्मण को मिली उर्मिला बजे बाजे बंधा सहरा ,
सती कीर्ति से शत्रुघ्न की गर्दन में पड़ी माला ,
ये चारों लडकियां आखिर जनक जी ने विदा कर दीं,
बढ़ा परिवार दशरथ का फरिश्तों ने बलाएँ लीं ।
( ६४ )
रहे कुछ दीं वह मिथला में अवध में आ गए फिर सब ,
गली कूचे वहां के थे या जन्नत के वहां थे ढब,
अयोध्या बन गई दुल्हन वहां की थी निराली छब ,
ख़ुशी ने फुलझड़ी छोड़ी मसर्रत ने किये करतब ,
अवध का चप्पा -चप्पा कोना -कोना नाच उठा था ,
वह था इक देश परियों का या आँखों ही का धोखा था .

रामायण -15

( ५७ )
तबियत चुलबुली लक्ष्मण की लेकिन रंग ले आई ,
दिया लकमा ऋषि जी को जुबां लेकिन कतराई ,
तबियत आप की बोदे धनुष ही पे क्यों आई ,
धनुष इक क्या मैं ला दूंगा हजारों रो न ऐ भाई ,
अजी वह टूटने की चीज थी क्यों आह भरते हो ।
फकत इक बांस के टुकड़े पे इतना मान करते हो ।
( ५८ )
सुनी जब बात परशुराम ने आँखें बनी शोले ,
भला ताकत थी किसमें जो नजर भर कर उन्हें देखे ,
तेरे दूध के भी दांत अभी टूटे नहीं लोंडे ,
न कर बात ज्यादा चीर कर रख दूंगा परशे से ,
मेरे आते जहां के शूरमां सब भाग जाते हैं ,
जमीं और आसमां दोनों मेरी नजरों से ही डरते हैं ।
( ५९ )
मुनिवर आपने हर बात में इक बात पैदा की ,
लडूरा ही रहा मैं तो न दिन निकला न रात आई ,
न पछुवा ही चली मुनिवर न चलती देखी पुरवाई ,
हैं कहते आप दांतों को यहाँ दाढ़ी भी उग आई ,
ये कहते और लक्ष्मण चुपके -चुपके हँसते जाते थे ,
तरह देते लखन लाल ऋषि जी बचते जाते थे ।
( ६० )
ऋषि के शब्द का लबरेज पैमाना हुआ आखिर ,
इशारे ही से रोका राम ने लक्ष्मण को फिर बढ़कर ,
ऋषि से राम बोले नम्रता से आ गया मुनिवर ,
मैं पापी हूँ मुझे दीजै सजा हूँ सामने हाजिर ,
ये सब झगडे की जड़ में हूँ धनुष मैंने ही तोड़ा है ,
दुखाया आपके मन को लगाया दिल पे कोड़ा है .

रामायण -14

( ५३ )
अवध में भी ये सन्देश मसर्रत का था भिजवाया ,
जिसे महाराजा दशरथ ने सरे दरबार पढवाया ,
खबर रनिवास में पहुंची तो मन हर इक का हर्षाया ,
मसर्रत से अवध का पत्ता -पत्ता नाच उठा था ,
जमीं पर पाँव टिकते ही न थे महाराजा दशरथ के ,
जो सच पूछो अयोध्या से सोये भाग जागे थे ।
(५४ )
इधर होने लगीं तैयारियां शादी रचाने की ,
गई दावत सभी सम्बन्धियों को जल्दी आने की ,
लिपाई और पुताई भी हुई हर इक घराने की ,
मची थी धूम अयोध्या में नए मेहमान आने की ,
हर इक लंगोटिया कहता था मैं भी साथ जाउंगा ,
बाला खुद आ गया निश्चित समय बरात सजने का ।
( ५५ )
उधर फ़ौरन जनक जी के यहाँ इक महर्षि आये ,
था इनका नाम परुशुराम ब्राह्मण कौम के जाए ,
वह हर ब्राह्मण के हामी थे वह हर स्त्री के दुश्मन थे ,
वहां आकर जनक जी से वह इस अंदाज से बोले ,
कहो राजन कुशल तो है कहो कुछ तो मुझे आखिर ,
नगर वासी भी गदगद हैं ये कैसी धूम है आखिर ।
(५६ )
ऋषि जी तिलमिला उठे जनक जी की बात सुनते ही ,
कड़क कर यों बोले - राजन बता किसकी है मौत आई ,
धनुष तोड़ा है शिव का किसने किसको है कजा लाई,
भला मैं पूछता हूँ जिन्दगी उसको न कुछ भाई ,
ये सुनते ही जनक राज तो गहरी सोच में डूबे,
नमाजों की ही रोते थे गले लेकिन पड़े रोजे .

सोमवार, 2 अगस्त 2010

रामायण -13

( ४९ )
इशारा करके विश्वामित्र ने लक्ष्मण को बैठाया ,
फकत इक आँख की जुम्बिश ने जादू अपना दिखलाया ,
मुखातिब राम ने होकर ऋषि ने ऐसे फरमाया ,
तुम्ही पर आँख है सबकी तुम्हीं पर ध्यान है सबका ,
करो संशय निवारण बढ़ो आगे धनुष तोड़ो ,
करो दूर परेशानी कि दिल टूटे हुए जोड़ो ।
( ५० )
सूना जब हुकुम विश्वामित्र का श्री राम जी उठे ,
धनुष की तोड़ने छाती वह सीना तान कर निकले ,
वह चलते थे तो कलियाँ मुसकातीं फूल खिलते थे ,
धनुष को बाजुओं पर उठाया हैरती सब थे ,
कडाके की सदा आई जमीं गूंजी फलक गूंजा ,
हर इक लब पर सदा थी -लो मुबारक हो धनुष है टूटा ।
( ५१ )
बसद नाजो अदा सीता से दरबार फिर आई ,
लिए थी हाथ में माला हर इक उम्मीद बार आई ,
वह क्या आई कि पूरब से कोई ठंडी लहर आई ,
खिला निखिल तमन्ना और वह लेकर मिसर आई ,
जो नहीं गर्दन झुकाई डाल दी माला मानो उसने ,
दिलों की खिल गईं कलियाँ हुए साकार सब सपने ।
( ५२ )
लहर दौड़ी ख़ुशी की देखकर हर मंजे रंगी ,
मसर्रत से ईद कुदरत ने खाली झोलियाँ भर दीं ,
बलाएँ सीता और श्री राम की जाकर हर इक ने लीं ,
फिजा में चार शू श्री राम की जय कार से गूंजीं ,
बजीं शहनाइयां और शादियाने बज गए हर शू ,
गुल अफ्सानी फरिश्तों ने भी की कोई न था बरखू .

रामायण-12

( ४५ )
बड़े शहजोर बनते हो बड़े बलवान बनते हो ,
बड़े मुंहजोर बनते हो बड़े अनजान बनते हो ,
खुदाई का यही दावा बड़े भगवान् बनते हो ,
हकीकत है कि तुम वो तो असल में नादाँ बनते हो ,
ये शिव का है धनुष इस को मेरी बेटी उठाएगी ,
तुम्हारी वीरता के सारी दुनिया गीत गाएगी ।
( ४६ )
सुनी जब बात इतनी हो गया माहौल ही साकत ,
हवा भी हो गई साकत फिजा भी हो गई साकत ,
था नजारा भी सकत और नजर भी हुई साकत ,
फलक भी हो गया सकत जमीं भी हो गई सकत ,
वहां था हूका आलम मौत की छाई थी खामोशी ,
कि इतने में गरज के साथ खामोशी मानो टूटी ।
( ४७)
गरूर और नाज करना आपके हक़ में नहीं अच्छा ,
तकव्वर छोड़ दो राजन तकव्वर का है सर नीचा ,
हमें तो आपका अंदाज ये इक पल नहीं भाया ,
ये अंदाजे तकलीम आपको शोभा नहीं देता ,
बुला के घर में इज्जत लूट ली है आपने सबकी ,
शराफत हमने दुनिया में कहीं ऐसी नहीं देखी ।
(४८ )
यही लक्ष्मण थे तांबे की तरह जो तमतमा उठे ,
थीं आँखें सुर्ख अंगारे जो जैसे कोंदते शोले ,
वह सीना तान कर फिर से से दरबार यों बोले -
है जुर्रत किस्में इतनी जो जबां अपनी भी अब खोले ,
मुझे दें हुकुम भैया मैं धनुष ये तोड़ सकता हूँ ,
कलाई कब्रों नाखूत की मैं फ़ौरन मोड़ सकता हूँ .

रामायण -11

( ४१ )
मुकद्दर आजमाओ आज अपना शूरमाओ तुम ,
ज़रा हम भी तो देखें किस बहादुर वीर में है दम ,
सलाए आम है आओ बढ़ो अब ठोक कर तुम हनम ,
दिखाओ अपनी शैजोरी फतह के गाड़ दो परचम ,
पड़ेगी उस में जयमाला जिस गर्दन में न ख़म होगा ,
वही ले जाएगा सीता कि जिसके दम में दम होगा ।
( ४२ )
बहादुर शूरमां इक इक कर मुकद्दर आजमाता था ,
वही चित हो गया जो कल अकड़ अपनी दिखाता था ,
उसी की हो गई सुबकी जो आँखों पर बिठाता था ,
धनुष उन से तो सच पूछो उठाये से न उठता था ,
कोई तो दौड़ता और भागता और कोई चित लेटे,
हवस थी ये धनुष तो अब किसी भी तौर से टूटे ।
( ४३ )
सभी ने अपनी हिम्मत के मुताबिक़ जोर दिखलाया ,
पसीने आ गए इक को कोई तो देखकर दौड़ा ,
धनुष को देखते ही इक बहाना कर भागा था ,
गिरा इक चारपाई से कोई सोते में चौंक उठा ,
धनुष क्या था मुसीबत थी बला थी एक आफत थी ,
इसी से सब बिदकते थे यही तो इक क़यामत थी ।
( ४४ )
जनक ने जब देखा खून आँखों में उतर आया ,
वह बोले तिलमिलाकर मैं बुलाकर तुमको पछताया ,
न कोई शूरमां भी इस धनुष को तो उठा पाया ,
मेरी बेटी क्वांरी ही रहे तो है बहुत अच्छा ,
तुम्हारी कौम पर तुफ्र है तुम्हारे नाम पर तुफ्र है ,
तुम्हारी वीरता पर और तुम्हारे काम पर तुफ्र है .

रामायण -10

( ३७ )
मानों कोंडा सा लपका और निगाहें मिल गईं आखिर ,
हुए दिल मोम इक ही चोट से कल तक जो थे पत्थर ,
झुकीं नजरें तने अब्रोदिलो पर चल गए खंजर ,
बयान मैं क्या करूँ महसूस ही कर लो तो है बेहतर ,
तबस्सुम रेज होंठों ने कहानी दिल की कह डाली ,
उजड़ के रह गए दिल तो मगर दुनिया नई पाली ।
( ३८ )
इधर श्री राम कहते थे मेरे मालिक मेरी सुन ले ,
मेरी झोली है खाली तू मुरादों से इसे भर दे ,
यही इक आरजू है मेरे भगवन पूरी तो कर दे ,
यही मोहनी सूरत मेरा पहलू जो गरमाए ,
उधर सीता भी दिल में चुपके -चुपके याद करती थी ,
कभी तो मुस्काती कभी सर्द आह भरती थी ।
( ३९ )
हमेशा इश्क की चौखट पर सर झुकते ही आये हैं ,
अजल ही से दिलों ने जख्म उल्फत ही के खाए हैं ,
कि आशिक दार पर भी चढ़के अक्सर मुस्काये हैं ,
हसीनान वतन भी इश्क पर ईमान लाये हैं ,
यही थी आरजू दिल में यही उसकी जबान पर था ,
तुम ऐसा ही सलोना वर माँ मुझे देना ।
( ४० )
मुकाम और वक्त निश्चित हो गया आखिर स्वयंवर का ,
सभी मेहमान इकट्ठे हो गए आया समय ऐसा ,
हर इक राजा व शहजादा मुक़र्रर जा पे बैठा ,
सरे मैदान धनुष लाकर अहलकारों ने इक रखा ,
धनुष की ओर इशारा करके राजन इस तरह बोले -
" तोड़ेगा इसे वह शूरमां बेटी मेरी पाए .

रविवार, 1 अगस्त 2010

रामायण -9

( ३३ )
सुराहीदार गर्दन और पुरउम्मीद सीना था ,
थे बाजू लम्बे बहरे इश्क में दिल का सफीना था ,
वह था इक हुश्न बेपरवाह पत्थर क्या नगीना था ,
लड़ी थी मोतिओं की या कि माथे पे पसीना था ,
था बूटा कद छरेरा जिस्म शक्ल उसकी बड़ी भोली ,
बदन गोरा किताबी चेहरा आमद से फिस्ना महकी ।
( ३४)
इबादत के लिए कुछ फूल पत्तों की जरुरत थी ,
यही तो बस चमन में उनके आने की हकीकत थी ,
वह डाली पे जाते थे यही बस उनकी आदत थी ,
खलिश काँटों की सहने ही में उनको मिलती लज्जत थी ,
यही मीठी चुभन दिल को हमेशा मोह लेती है ,
हर इक गहराई और गीराई को ये तोह लेती थाई ।
( ३५ )
किताबी राम का चेहरा मगर थी सांवली रंगत ,
मुरादों के अभी दिन थे अभी मरने की थी चाहत ,
कि जुल्फों की परेशानी ही देती थी उन्हें लज्जत ,
सलोनी सांवली सूरत ही बन ग ई दिल की राहत ,
था लंबा सरों जैसा कद छरेरा था बदन सारा ,
थी छोटी उनकी पेशानी था खंजर नाम आबरू का ।
( ३६ )
कँवल जैसी थी आँखें नाक लम्बी और तीखी थी ,
थे पतले होंठ पत्ती गुल की उनके आगे फीकी थी ,
कमर उनकी तो सच पूछो कि चीते जैसी पतली थी ,
जिगर में सोज था लेकिन गर्दन शेरोन से तीखी थी ,
थी चकले जैसी छाती और बाजू उनके लम्बे थे ,
जलाल और दबदबा ऐसा कि फन्ने खां भी डरते थे .

रामायण-8

(२९ )
महल इक ख़ास अहलकारों ने आखिर खाली करवाया ,
जनकपुर के सभी वासी इसे कहते थे जनवासा ,
ऋषि के साथ दोनों भाइयों को इसमें ठहराया ,
किया करते थे दोनों ही ऋषि की जान से सेवा ,
वहीँ इक बाग़ था दोनों जहां जाकर टहलते थे ,
कभी कुछ गुनगुनाते थे कभी विश्राम करते थे ।
( ३० )
जनकपुर में इन्हें रहते हुए था कुछ समय बीता ,
कि इक दिन बाग़ में आई जनक की लाडली सीता ,
थी सखियाँ साथ उसके दिल खुदा की याद ने जीता ,
हकीकत में वह गौरी माँ की करने आई थी पूजा ,
मिले वह ताकि सुन्दर अच्छी सूरत और सीरत हो ,
मुझे उनसे मुहब्बत हो उन्हें मुझसे मुहब्बत हो ।
( ३१ )
चमन में गुंचे -गुंचे बूते-बूते लहलहा उठे ,
ख़ुशी के जोश में कलियों के चेहरे मुस्करा उठे ,
हुए गुल शर्म से पानी कि पत्ते खिलखिला उठे ,
नहीं थी घास पर शबनम कि मोती चमचमा उठे ,
सुबक कदमी थी सीता की कि नाचे मोर जंगल के ,
इसी नाजुक खुरामी पर कोई दिलदार जान दे दे ।
(३२)
थे गेसू या सावन की घटाएं खुल के हों छाईं,
जबीं थी या कि परियां आसमां से चाँद आईं,
वह अबरो जिस के हरमों पर ही सौ -सौ क़त्ल हो जाएँ ,
वह आँखें थीं प्याले मय के साकी जैसे छलकाएं ,
दिले आशिक पे तीखी नाक ,खूब -खूब जाए थी प्यारे ,
लबे कलीं पे थे कुरबां गुले रंगी ही सारे .

रामायण -7

( २५ )

तकलीफ बर तरफ करके ऋषि दरबार में पहुंचे ,
ज्यों ही देखा जनक जी ने स्वागत के लिए दौड़े ,
जनक बोले -जाहे किस्मत हमारे भाग भी जागे ,
कुशल पूछी ऋषि जी ने जनक इक बारगी बोले ,
इनायत है करम है खैरियत है मेहरबानी है ,
यहाँ तो आपही के फैज का सब दाना पानी है ।

( २६ )

तारुफ़ फिर कराया राम लक्ष्मणका जनक जी से ,
पकड़ कर हाथ दोनों का ऋषि हँसते हुए बोले ,
" अवध के दुलारे हैं ये दशरथ के हैं उजियारे ,
यही राम लक्ष्मण जिनको शत्रु देखकर भागे ,
इन्हीं से दरहकीकत सोता सुषमन का नसीबा है ,
हमें ये मांस के पुतले कि सम्स हैं अजूबा है ।
(२७ )
मैं इनको साथ लाया हूँ हमारी हो गई रक्षा ,
हुआ है यज्ञ सम्पूर्ण कि जैसे मिल गई भिक्षा ,
इन्हीं से मिल गई है दुश्मनाने कौम को शिक्षा ,
अभी तक फिर रहा है सामने किरदार के गाजी ,
इन्हीं के बल पे हम जीतेंगे आखिर धरम की बाजी ।
( २८ )
अदब से फिर किया प्रणाम दोनों ने जनक जी को ,
ऋषि की बात सुनते ही हुए बेखुद जनक जी तो ,
कहा दिल में - मेरे भगवन ये जोड़ी तो मुझे दे दो ,
मेरी दौलत मेरी शोहरत मेरी हसमत भले ले लो ,
खलूस और अज्ज की ये इल्तजा टालीनहीं जाती ,
निकलती है जो दिल से बात वह खाली नहीं जाती .





रामायण -6

( २१ )
जनक जी का मिला सन्देश विश्वामित्र हर्षाये ,
यही अहसास था उनको बड़े इंसान घटे साए ,
खिली दिल की कली ऐसी कि गुंचे खिलके मुस्काये ,
मुरव्वत और मुहब्बत के तकाजे रंग ले आये ,
बला हिंद हो गई तैयारियां मिथला को जाने की ,
हुई तदवीर किस्मत से नया इक गुल खिलाने की ।
( २२ )
खबर ये जाके विश्वामित्र ने दी राम लक्ष्मण को ,
कहा - तुम दोनों भाई अब तो बस तैयार हो जाओ ,
हमें मिथला को जाना है अभी पल भर में तुम आओ ,
बुलाया है जनक ने तुम चलोगे न ? ज़रा बोलो ,
जनक राजा स्वंयवर अपनी बेटी का रचाएंगे ,
हमीं तो आबरू जाकर जनक की बचायेंगे ।
( २३ )
ऋषि के साथ आ पहुंचे जनकपुर राम और लक्ष्मण ,
सभी मित्ज्ला के वासी देखने आये रघुनन्दन ,
निछावर कर रहे थे सब उन्हीं पर अपना तन मन धन ,
हुआ पुरजोश इस्तकबाल दोई के कटे बंधन ,
वहां मेहमान क्या आये बहारें आ गईं सारी ,
खिजां का एक दिन भी हो गया रहना वहां भारी ।
( २४ )
हर इक मेहमान ने धाक अपनी जमाने की वहां ठानी ,
जो सच पूछो इन्होंने कदर ही अपनी न कुछ जानी ,
वहां तो पद गया इक इक की उम्मीदों ही पर पानी ,
हकीकत है न रैंकी उनके आगे भेंस भी कानी ,
बड़े बलवान बनते थे बड़े शहजोर बनते थे ,
मगर मिथला वासी घास भी उनको न देते थे .

रामायण -5

( १७ )
गुरु की बात सुनते ही कलेजा बन गया पत्थर ,
उठाया मोह का पर्दा मिटाया दिल से हर इक डर ,
कटे तब आरजी बंधन मुरव्वत छोड़ बैठी घर ,
निगाहों की चमक ने कर दिया ऊंचा अवध का सर ,
किया दशरथ ने हँसते -हँसते रुखसत दोनों बेटों को ,
मिलेगी अब जगह मुश्किल ही से किस्मत के हेटों से ।
(१८ )
गए जंगल में दोंजों भाई विश्वामित्र के संग ,
वहां देखे उन्होने जिंदगानी के नए ही ढंग ,
इबादत गाह को नापाक करने के वहां थे ढंग ,
भुना करती है अक्सर दुष्ट पापी के यहाँ ही भंग ,
ऋषि की कोशिशों से यज्ञ करने लग गए सारे ,
दिलों में कह रहे थे धन्य हैं दशरथ के उजियारे ।
( १९ )
समय आया फकत इक तीर ही से ताडका मारी ,
सुबाहु के भी सीने पर लगा था तीर इक कारी ,
चली मारीचि के दिल पर गए फुरकत की तेज आरी ,
वह भागा दुम दबा कर और अकड़ निकली वहां सारी ,
किया गुणगान ऋषियों ने फिर इनके मन थे हर्षाये ,
फलक से देवताओं ने भी बढ़कर फूल बरसाए ।
( २० )
मिला इक रोज विश्वामित्र को सन्देश मिथला से ,
स्वंयवर का रहा हूँ मैं जवान अब हो गई सीते ,
ब्याही जायेगी उस से जो मेरी शर्त को जीते ,
न आये आप अगर तो रंग सब पड़ जायेंगे फीके ,
मिरी ये इल्तजा है आप आयें लाजमन आयें ,
मेरी छोटी सी कुटिया पर मुनिवर करम फरमाएं .

रामायण -4

( १३ )
सुना इतना तो दशरथ जी का आखिरकार मन डोला ,
होश के पाँव फैले मोह ने भी अपना मुंह खोला ,
जो कहना था उन्होंने कह दिया मुंह में न कुछ तौला ,
ऋषि के कान में इस बात ने मीठा जहर घोला ,
ये अपने नैन तारे में आपको दे दूँ क्यों दे दूँ ?
मुसीबत इक नई मैं मोल भी ले लूँ तो क्यों ले लूँ ।
( १४ )
यही लाडले मेरे यही मेरे प्यारे हैं ,
यही अंधे की लाठी हैं यही आँखों के तारे हैं ,
यही हैं आखिरी पूँजी यही मेरे सहारे हैं ,
इन्हें जतनों से पाया है अवध के दुलारे हैं ,
वनों में किस तरह नाजों के पालों को मैं भेजूंगा ,
इन्हें मैं खुद ब खुद क्यों मौत के मुंह में धकेलूंगा।
( १५ )
सुना जब महर्षि ने यह तो फ़ौरन तिलमिला उठे ,
अचानक राम -लक्ष्मण खेलकर दरबार में आये ,
झपकते ही लपक जा कर पिता की गोद में बैठे ,
कभी मूंछों से वह खेलते कभी दाढी से वह खेले ,
गुरु बोले -" ये बंधन आरजी होते हैं उल्फत के ,
त्यागो मोह माया तोड़ दो बंधन मुहब्बत के ।
( १६ )
गुरु बोले - जमाने की हवा इन को भी लगने दो ,
इन्हें भी जिन्दगी की धुप -छाँव में निखारने दो ,
ज़रा संयम की भट्ठी में इन्हें भी आज तपने दो ,
बनाना है इन्हें कुंदन ऋषि के साथ जाने दो ,
इन्हीं की वीरता के सारी दुनिया गीत गाएगी ,
यही दौलत यही पूँजी ही आखिर काम आएगी .


रामायण -3

( ९ )
अचानक एक दिन महर्षि दरबार में आये ,
था उनका नाम विश्वामित्र थे बेहद वह घबराए ,
उन्होंने कैफियत पूछी कहा तशरीफ़ क्यों लाये ,
यही महसूस होता है कि बादल गम के हैं छाये ,
तरददुदछोड़ दीजै बात बेखोफ बेखतर कहिये ,
मैं सेवक हूँ तकलीफ बर तरफ अब दिल का डर कहिये ।
( १० )
सुनी जब बात दशरथ की ऋषि ने खुलके फरमाया ,
वनों में राक्षसों का ही बड़ा कोहराम इक छाया ,
मैं अपना ही नहीं सारे जहां का दर्द हूँ लाया ,
यकीं कामल मैं लेकर आप ही के दर पे हूँ आया ,
हर इक पापी का बढ़कर मैंने तो अब नाश करना है ,
किया है कॉल ऋषियों से उसका पास करना है ।
( ११ )
सुनी बात इतनी राजा दशरथ तन से यों बोले ,
मेरे होते हुए कोई दुष्ट जो अपनी जबान खोले ,
मेरे लश्कर को इक पल देखकर दुश्मन का मन डोले ,
वह ऐसे छायेंगे उनपर पड़ें ज्यों खेत में ओले ,
अदब के खून से शमशीर आज अपनी निखारूंगा ,
मिटाकर इनकी हस्ती आकबत अपनी संवारूंगा ।
( १२ )
सुनी बात धरत की ऋषि की बांध गई हिम्मत ,
मुझे तो आपकी बातों से राजन मिल गई ताकत ,
करूँ मैं सामना दुष्टों का मुझ में है कहाँ जरायत ,
न मुझको चाहिए लश्कर न मुझको चाहिए दौलत ,
मुझे तो राम -लक्षमण चाहिए ये मेरे बाजू हैं ,
यही दुष्टों के हैं नाशक यही केतु व राहू हैं .

रामायण -2

(५ )
सभी आली व अदनी हो गए उस यज्ञ में शामिल ,
किया था इंतजाम ऐसा कि सारे हो गए कायल ,
ये हक़ है कि अहलकारों से कोई भी न था बेदल ,
रियाया की मुहब्बत ने हर इक को कर दिया मायल ,
श्रंगी जी का आखिर ये करिश्मा रंग ले आया ,
कली झुकी ,हंसा गुंचा कि गुल ने कहकहा मारा ।
( ६ )
खुदा की रहमतें आईं अवध पर बेहिसाब आईं ,
हमाले की हवाएं फिर से संदेशे नये लायीं ,
हसीनों पर पर शबाब आया उम्मीदें दिल की बरआईं ,
भरीं किलकारीं बच्चों ने माएं दिल में मुस्काईं,
फिजा में नूर की बारिशें हुईं तारीकियाँ भायीं ,
हुआ मुंह पाप का काला कि सोईं किस्मतें जागीं ।
( ७ )
हुए कौशल्या रानी के यहाँ श्री राम जी पैदा ,
सुमित्रा ने था लक्षमण और शत्रुघ्न सा धन पाया ,
भरत कैकेई के जाये खिदमत में जो थे आली ,
ये चारों भाई थे जिन पर अयोध्या दिल से थी सैदा ,
यही थे नूर आँखों के इन्हीं से दिल में धड़कन थी ,
इन्होने याक्बत की दर हकीकत शान पैदा की ।
( ८)
तबियत रामचंद्र जी की इक खामोश दरिया थी ,
थी लक्ष्मण की तबियत में ज़रा तेजी ज़रा तल्खी ,
भरत के हाँ अकीदत और समादत की थी गहराई ,
मुहब्बत और उल्फत की थी शत्रुघ्न में गीराई ,
यही थे भाई चारों जिनकी अपनी ही तबियत थी ,
अख्वत और मुरव्वत उनकी अपनी ख़ास खसलत थी .


रामायण -1

राम जन्म
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( १)
मेरे भगवन मेरी हस्ती तेरे दम ही से कायम है ।
जमाने को फना है और तेरी हस्ती ही दायम है ।
निजामे आलमे हस्ती तेरे बल ही पे सालम है ,
तुझे ही फिक्र है सब का तो फिर किस बात का गम है ,
मेरे मालिक तू मेरे हाल पर हरदम नजर रखना ,
सुनाता हूँ कहानी इक ज़रा गौर से सुनना ।
( २)
रघुकुल वंश के राजा दशरथ निपूते थे ।
न दौलत की कमी थी और न शोहरत के वह भूखे थे ,
जो सच पूछो तो उन से असल में भगवान् रूठे थे ,
बिना फल ही के मुरझाये हुए पसर मुर्दा बूते थे ,
चमन में रह के भी उनको चमन से हाय नफरत थी ,
मिला था यों तो सब कुछ ही मगर बेटे की चाहत थी ।
( ३ )
यही गम था उन्हें दिन रात ही जो खाए जाता था ,
बुलाकर एक दिन अपने वजीरों से यों फरमाया ,
" मैं ऐसी जाह व हस्मस और दौलत लेके भर पाया ,
मैं शोहरत का नहीं भूखा मैं शोहरत लेके पछताया ,
मेरा ये राज ले लो और बेटा दे दो इक मुझको ,
यही दौलत यही शोहरत यही इस्मत मुझे दे दो ।
( ४ )
उन्हें भी गम था वह भी चुपके -चुपके आह भरते थे ,
नमक का हक़ अदा करने की सब तदवीर करते थे ,
सभी सर जोड़ते और अपनी किस्मत पर बिगड़ते थे ,
इसी इक फिक्र में वह सब न जीते थे और न मरते थे ।
बाल आखिर सोच कर सबने ऋषि जी को बुलवाया ,
उन्हीं की कोशिशों ने यज्ञ का प्रबंध करवाया .