रविवार, 1 अगस्त 2010

रामायण-8

(२९ )
महल इक ख़ास अहलकारों ने आखिर खाली करवाया ,
जनकपुर के सभी वासी इसे कहते थे जनवासा ,
ऋषि के साथ दोनों भाइयों को इसमें ठहराया ,
किया करते थे दोनों ही ऋषि की जान से सेवा ,
वहीँ इक बाग़ था दोनों जहां जाकर टहलते थे ,
कभी कुछ गुनगुनाते थे कभी विश्राम करते थे ।
( ३० )
जनकपुर में इन्हें रहते हुए था कुछ समय बीता ,
कि इक दिन बाग़ में आई जनक की लाडली सीता ,
थी सखियाँ साथ उसके दिल खुदा की याद ने जीता ,
हकीकत में वह गौरी माँ की करने आई थी पूजा ,
मिले वह ताकि सुन्दर अच्छी सूरत और सीरत हो ,
मुझे उनसे मुहब्बत हो उन्हें मुझसे मुहब्बत हो ।
( ३१ )
चमन में गुंचे -गुंचे बूते-बूते लहलहा उठे ,
ख़ुशी के जोश में कलियों के चेहरे मुस्करा उठे ,
हुए गुल शर्म से पानी कि पत्ते खिलखिला उठे ,
नहीं थी घास पर शबनम कि मोती चमचमा उठे ,
सुबक कदमी थी सीता की कि नाचे मोर जंगल के ,
इसी नाजुक खुरामी पर कोई दिलदार जान दे दे ।
(३२)
थे गेसू या सावन की घटाएं खुल के हों छाईं,
जबीं थी या कि परियां आसमां से चाँद आईं,
वह अबरो जिस के हरमों पर ही सौ -सौ क़त्ल हो जाएँ ,
वह आँखें थीं प्याले मय के साकी जैसे छलकाएं ,
दिले आशिक पे तीखी नाक ,खूब -खूब जाए थी प्यारे ,
लबे कलीं पे थे कुरबां गुले रंगी ही सारे .

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