सोमवार, 9 अगस्त 2010

रामायण -२१

( १५ )
गई कोप भवन में कैकेई हुई उलटी हर इष्टवां ,
किया धुप अन्धेरा ही चार शू हुई कोप से वर्क तपां ,
लिए गेसू उसने बिखेर फिर किया बिस्तर हर एक नीमजां ,
लिए जेवरात उतार सब गया मिल जमीन से आसमां ,
जब आये राजा तो भर पड़ी हुई नोंक झोंक इशारतन ,
वह तो छेड़छाड़ से जल गई हुआ सुर्ख गुस्से से तन मन ।
( १६ )
कहा राजा दशरथ ने - जाने मन तेरी क्यों तबियत उदास है ,
तेरे इश्क ही में तो बात है तेरा प्यार ही मुझको रास है ,
नहीं दिल में अर्स व होश की वो तेरा प्यार मेरा असास है ,
तू जो मेरे पहलू में आ गई कि ज़माना मेरे ही पास है ,
तेरे पाँव चूमेंगीं किस्मतें तेरे पाँव चूमेंगीं शर्बतें ,
ये जहां भर की है नियामतें ये जहां भर की हैं दौलतें ।
( १७ )
मुझे हुक्म दे तू अगर ज़रा तो फलक से तारे भी तोड़ दूँ ,
तू अगर कहे तो मैं माहताब को तेरी गोद में फैंक दूँ ,
तेरी लट मैं उलझी सवांर दूँ तेरी मांग मैं तारों से भर दूँ ,
तेरे वास्ते तो मैं जाने मन ये हयातें फानी भी वार दूँ ,
तू कहे तो खूं की नदी बहे तू कहे तो दिन न चढ़े कभी ,
ये तो इश्क जोई तू छोड़ दे तेरी जीस्त है मेरी जिन्दगी ।
( १८ )
ये सुना तो तन मन ही जल गया लगी राजा दशरथ को कोसने ,
ये तो सब खुशामद है आपकी ये तो लल्लो -पत्तो ही कर रहे ,
न यों मुझको ऐसे बनाओ जी ये तो बस फरेब है आपके ,
मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो मुझे कुछ न आपसे चाहिए ,
ये तो सिर्फ वक्त की बात है मेरे भाग में न रही ख़ुशी ,
कि मैं टुकड़े टुकड़े के वास्ते हूँ मैं राह आपकी देखती .

1 टिप्पणी: