रविवार, 1 अगस्त 2010

रामायण -5

( १७ )
गुरु की बात सुनते ही कलेजा बन गया पत्थर ,
उठाया मोह का पर्दा मिटाया दिल से हर इक डर ,
कटे तब आरजी बंधन मुरव्वत छोड़ बैठी घर ,
निगाहों की चमक ने कर दिया ऊंचा अवध का सर ,
किया दशरथ ने हँसते -हँसते रुखसत दोनों बेटों को ,
मिलेगी अब जगह मुश्किल ही से किस्मत के हेटों से ।
(१८ )
गए जंगल में दोंजों भाई विश्वामित्र के संग ,
वहां देखे उन्होने जिंदगानी के नए ही ढंग ,
इबादत गाह को नापाक करने के वहां थे ढंग ,
भुना करती है अक्सर दुष्ट पापी के यहाँ ही भंग ,
ऋषि की कोशिशों से यज्ञ करने लग गए सारे ,
दिलों में कह रहे थे धन्य हैं दशरथ के उजियारे ।
( १९ )
समय आया फकत इक तीर ही से ताडका मारी ,
सुबाहु के भी सीने पर लगा था तीर इक कारी ,
चली मारीचि के दिल पर गए फुरकत की तेज आरी ,
वह भागा दुम दबा कर और अकड़ निकली वहां सारी ,
किया गुणगान ऋषियों ने फिर इनके मन थे हर्षाये ,
फलक से देवताओं ने भी बढ़कर फूल बरसाए ।
( २० )
मिला इक रोज विश्वामित्र को सन्देश मिथला से ,
स्वंयवर का रहा हूँ मैं जवान अब हो गई सीते ,
ब्याही जायेगी उस से जो मेरी शर्त को जीते ,
न आये आप अगर तो रंग सब पड़ जायेंगे फीके ,
मिरी ये इल्तजा है आप आयें लाजमन आयें ,
मेरी छोटी सी कुटिया पर मुनिवर करम फरमाएं .

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