मंगलवार, 3 अगस्त 2010

रामायण -15

( ५७ )
तबियत चुलबुली लक्ष्मण की लेकिन रंग ले आई ,
दिया लकमा ऋषि जी को जुबां लेकिन कतराई ,
तबियत आप की बोदे धनुष ही पे क्यों आई ,
धनुष इक क्या मैं ला दूंगा हजारों रो न ऐ भाई ,
अजी वह टूटने की चीज थी क्यों आह भरते हो ।
फकत इक बांस के टुकड़े पे इतना मान करते हो ।
( ५८ )
सुनी जब बात परशुराम ने आँखें बनी शोले ,
भला ताकत थी किसमें जो नजर भर कर उन्हें देखे ,
तेरे दूध के भी दांत अभी टूटे नहीं लोंडे ,
न कर बात ज्यादा चीर कर रख दूंगा परशे से ,
मेरे आते जहां के शूरमां सब भाग जाते हैं ,
जमीं और आसमां दोनों मेरी नजरों से ही डरते हैं ।
( ५९ )
मुनिवर आपने हर बात में इक बात पैदा की ,
लडूरा ही रहा मैं तो न दिन निकला न रात आई ,
न पछुवा ही चली मुनिवर न चलती देखी पुरवाई ,
हैं कहते आप दांतों को यहाँ दाढ़ी भी उग आई ,
ये कहते और लक्ष्मण चुपके -चुपके हँसते जाते थे ,
तरह देते लखन लाल ऋषि जी बचते जाते थे ।
( ६० )
ऋषि के शब्द का लबरेज पैमाना हुआ आखिर ,
इशारे ही से रोका राम ने लक्ष्मण को फिर बढ़कर ,
ऋषि से राम बोले नम्रता से आ गया मुनिवर ,
मैं पापी हूँ मुझे दीजै सजा हूँ सामने हाजिर ,
ये सब झगडे की जड़ में हूँ धनुष मैंने ही तोड़ा है ,
दुखाया आपके मन को लगाया दिल पे कोड़ा है .

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