सोमवार, 9 अगस्त 2010

रामायण -२४

( २७ )
ये सुना तो दशरथ तड़प उठे कहा - आस्तीन का सांप है तू ,
तेरा भेद आज तो खुल गया ये अयाँ हुआ तेरा क्या है खू ,
तेरे दिल में पहले ही चोर था तेरे मन में दुई की देख बू ,
तेरा हुश्न क्या है फरेब है तेरे इश्क में है होश की बू ,
यही आजू है तेरी बता कि हो भरत लाल ही हुक्मरान ,
तेरी बात पूरी ये हो गई कि मैं साक्षी जमीं आसमान ।
( २८ )
अरी कैकेई ज़रा तरस खा ज़रा रहम कर मेरे हाल पर ,
वही मेरी आँख का नूर है मुझे कर न जालिम तू बेबसर ,
मेरी राम चन्द्र हैं आत्मा उसे आँख से न तू दूर कर ,
अरी बेवफा मेरे मुल्क पर ज़रा रहम की भी तू कर नजर ,
मेरे दिल का वही सरूर है मेरे दिल को उससे करार है ,
वह नहीं तो बाग़ में है खिजां है अगर तो फसले -बहार है ।
( २९ )
नहीं बात आपकी मानती है ये अच्छा कॉल ही हार दो ,
जो ये ढोल पीटा है फोड़ दो ये थूक फेंका है चाट लो ,
जो कहो वह कर के दिखाओ भी न यों मोह माया में अब पड़ो,
ये यों वंश -वंश की छोड़ दो ज़रा उनके रिश्ते पे भी चलो ,
ये सुना तो दशरथ जी रो पड़े हुए एक चुटकी में नम जान ,
कहा ईश्वर का तू खौफ खा न जला तू मेरा यों आशियाँ ।
( ३० )
मेरे राम बैठेगे तख़्त पर उन्हें वन में कैसे मैं भेजूंगा ,
मेरा हाल अबतर है कर दिया कि ये बात वापिस मैं कैसे ले लूँ ,
तू ही लाज रख मेरी आन की तेरे पाँव हाय मैं ले पडूँ
तेरे दिल में क्या है बता मुझे तेरी बात दीगर मैं मान लूँ ,
सुनी बात कैकेई ने भर गई कहा कॉल का ये ही पास है ,
मुझे पता था कि दिल आपका बड़ा मोह माया का दास है .

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