सोमवार, 2 अगस्त 2010

रामायण -10

( ३७ )
मानों कोंडा सा लपका और निगाहें मिल गईं आखिर ,
हुए दिल मोम इक ही चोट से कल तक जो थे पत्थर ,
झुकीं नजरें तने अब्रोदिलो पर चल गए खंजर ,
बयान मैं क्या करूँ महसूस ही कर लो तो है बेहतर ,
तबस्सुम रेज होंठों ने कहानी दिल की कह डाली ,
उजड़ के रह गए दिल तो मगर दुनिया नई पाली ।
( ३८ )
इधर श्री राम कहते थे मेरे मालिक मेरी सुन ले ,
मेरी झोली है खाली तू मुरादों से इसे भर दे ,
यही इक आरजू है मेरे भगवन पूरी तो कर दे ,
यही मोहनी सूरत मेरा पहलू जो गरमाए ,
उधर सीता भी दिल में चुपके -चुपके याद करती थी ,
कभी तो मुस्काती कभी सर्द आह भरती थी ।
( ३९ )
हमेशा इश्क की चौखट पर सर झुकते ही आये हैं ,
अजल ही से दिलों ने जख्म उल्फत ही के खाए हैं ,
कि आशिक दार पर भी चढ़के अक्सर मुस्काये हैं ,
हसीनान वतन भी इश्क पर ईमान लाये हैं ,
यही थी आरजू दिल में यही उसकी जबान पर था ,
तुम ऐसा ही सलोना वर माँ मुझे देना ।
( ४० )
मुकाम और वक्त निश्चित हो गया आखिर स्वयंवर का ,
सभी मेहमान इकट्ठे हो गए आया समय ऐसा ,
हर इक राजा व शहजादा मुक़र्रर जा पे बैठा ,
सरे मैदान धनुष लाकर अहलकारों ने इक रखा ,
धनुष की ओर इशारा करके राजन इस तरह बोले -
" तोड़ेगा इसे वह शूरमां बेटी मेरी पाए .

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