बुधवार, 11 अगस्त 2010

रामायण -26

( ३५ )
जो नहीं देखा उसने तो यों कहा मेरी जान बोलो कहाँ थे तुम ,
तुम्हें ढूंढते मैं तो थक गई कहाँ हो गए मेरे लाल तुम ,
हूँ मैं तुम्हारी याद में बावरी कि मैं प्यार ही के लुटाऊं खुम ,
मेरे लाडले मेरे सुख भी ले कि है पागल अब तो तुम्हारी उम ,
मेरी आँख का तुम्हीं नूर हो मेरे दिल का तुम ही सुरूर हो ,
कि हो तुम तो बहार है , है खिजां जो आँख से दूर हो ।

( ३६ )
कहा राम चन्द्र ने - जाने मन मुझे हुकुम बाप का ये मिला ,
कि महल ये फ़ौरन ही छोड़ नहीं हुकुम माल व मनाल का ,
रहो वन में चौदह साल तक यही है मेरी तुम्हें आज्ञा ,
तेरी साध पूरी ये हो गई मुझे हुकुम दो मैं तो आउंगा ,
मुझे आबरू का ख्याल है न ही मोह माया से मोह कुछ ,
कि जो हुकुम वालिद है उसके आगे तो तख़्त व ताज है चीज तुच्छ ।
( ३७ )
ये ही सुन कौशल्या ने यों कहा - मेरे लाल हाय मैं लुट गई ,
मेरे दिल को तुम से करार है कि है जिस से कायम ये जिन्दगी ,
कि है दिल में तुम ही ही बुलबुले कि है दिल में तुम से ही बेखुदी ,
तुम ही मेरी आँख का नूर हो कि है तुम से मुझ में भी आग ही ,
कि मैं साथ तुम्हारे ही आउंगी कि ये सेज काँटों की मुझे मुझे है ,
मुझे ये सब इशरत न चाहिए ये तेज तुम्हारा ही तेज है ।
( ३८ )
ये सुना तो राम ने यों कहा मेरी मां ज्यादह तू तो गम न कर ,
कि ये अरसा बेहद कलील है कि साल चौदह तो मुख़्तसर ,
ये तो बीत जायेंगे एक दम कि यों सर्द आहें न आज भर ,
मेरी याद तुमको सताएं जब तू तो बीती बातों को याद कर ,
मेरा फर्ज है यही जाने मन कि मैं हुकुम वालिद को मां लूँ ,
यही हक़ मेरा यही फर्ज है कि मैं इन पे जीवन भी वार दूँ .

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