सोमवार, 9 अगस्त 2010

रामायण -23

( २३ )
सुना कैकेई ने संभल गई ज़रा और आगे सरक गई ,
बड़े प्यार से बड़े मोह से तभी बांह गर्दन में दाल दी ,
कहा जाने मन मेरी अर्ज है यही बात मेरी है जिन्दगी ,
मेरे दम से युद्ध में आपकी मेरी जान जान भी बच गई ,
तभी आप बोले थे मुझसे यों मेरी जान तूने बचाई है ,
तुझे मरहबा तुझे आफरीन कि बधाई है कि बधाई है ,
( २४ )
मेरी खिदमतें काम आ गईं मेरी सेवा देख के खुश हुए ,
मुझे आप ही ने तो जाने मन वहां घोर युद्ध में वर दिये ,
कहा जो भी ख्वाहिश हो कैकेकी तू ये वर लपक के ही मांग ले ,
मुझे कॉल दे के न हारना मुझे आप ही की तो आस है ,
मेरा पहला वर ये है जाने मन मेरे भरत लाल को तख़्त दो ,
मुझे दूसरा वर ये मिले श्री राम को वनवास हो ।
( २५ )
ये सुना तो दशरथ जी चौंक उठे कहा होशकर अरी बेहया ,
तेरा राम से क्या बिगाड़ है न तू राम चन्द्र पे कर जफा ,
वह तो वर्गेगुल से भी नरम है वह तो धूप सह न पायेगा ,
वहां बरखा कैसे सहेगा वो वहां जाड़ा भी तड्पाएगा ,
कि उस ने मेरी भी जिन्दगी मेरे हाल ही पे तो कर दया ,
तेरा क्या बिगाड़ा है ये बता मुझे आज सूझी क्या है भला ।
( २६ )
कहा कैकेई ने जबाब में मेरी जान आप न गम करें ,
ये तो आप ही ने कहा मुझे मेरी बात आप ही टाल दें ,
मुझे कॉल देने से फायदा ये है वर ये आप संभाल लें ,
मुझे दुःख है आपकी जात से मेरी अर्ज आप न अब सुनें ,
न ही मैंने आप से अर्ज की न ही मैंने आप से था कहा ,
खुद ही कॉल देते हैं आप भी खुद ही हार जाते हैं वर मिला .

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