मंगलवार, 3 अगस्त 2010

रामायण -16

( ६१ )
ऋषि पहले तो सुनकर तमतमाए फिर मगर बोले ,
तुझे समझूंगा योद्धा तू अगर फिर से धनुष तोड़े ,
सुनकर रामजी ने फिर से उसके कर दिये टुकड़े ,
ऋषि ये देखकर मंजर तो क़दमों की तरफ दौड़े ,
हुआ अन्याय है मुझसे क्षमा की जे मुझे प्रभुवर ,
ये कहकर एक क्षण में हो गए रुखसत मानों मुनिवर ।
( ६२ )
जनकपुर में लिए बरात आ पहुंचे श्री दशरथ ,
जनकपुर के हर इक वासी ने खुश होकर किया स्वागत ,
उन्हें मेहमानवाजी से हुई थी ख़ास इक रगबत ,
मिले समधी जनक को क्या जमाने की मिली दौलत ,
जनक ने दिल में सोचा और दशरथ से यों फरमाया -
ये चारों लाडले दे दो इन्हें हूँ मांगने आया ।
( ६३ )
सजी बरात चारों की ब्याही राम से सीता ,
भरत ने मांडवी पाई बधी से उसको ब्याहा था ,
थी लक्ष्मण को मिली उर्मिला बजे बाजे बंधा सहरा ,
सती कीर्ति से शत्रुघ्न की गर्दन में पड़ी माला ,
ये चारों लडकियां आखिर जनक जी ने विदा कर दीं,
बढ़ा परिवार दशरथ का फरिश्तों ने बलाएँ लीं ।
( ६४ )
रहे कुछ दीं वह मिथला में अवध में आ गए फिर सब ,
गली कूचे वहां के थे या जन्नत के वहां थे ढब,
अयोध्या बन गई दुल्हन वहां की थी निराली छब ,
ख़ुशी ने फुलझड़ी छोड़ी मसर्रत ने किये करतब ,
अवध का चप्पा -चप्पा कोना -कोना नाच उठा था ,
वह था इक देश परियों का या आँखों ही का धोखा था .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें