रविवार, 1 अगस्त 2010

रामायण -3

( ९ )
अचानक एक दिन महर्षि दरबार में आये ,
था उनका नाम विश्वामित्र थे बेहद वह घबराए ,
उन्होंने कैफियत पूछी कहा तशरीफ़ क्यों लाये ,
यही महसूस होता है कि बादल गम के हैं छाये ,
तरददुदछोड़ दीजै बात बेखोफ बेखतर कहिये ,
मैं सेवक हूँ तकलीफ बर तरफ अब दिल का डर कहिये ।
( १० )
सुनी जब बात दशरथ की ऋषि ने खुलके फरमाया ,
वनों में राक्षसों का ही बड़ा कोहराम इक छाया ,
मैं अपना ही नहीं सारे जहां का दर्द हूँ लाया ,
यकीं कामल मैं लेकर आप ही के दर पे हूँ आया ,
हर इक पापी का बढ़कर मैंने तो अब नाश करना है ,
किया है कॉल ऋषियों से उसका पास करना है ।
( ११ )
सुनी बात इतनी राजा दशरथ तन से यों बोले ,
मेरे होते हुए कोई दुष्ट जो अपनी जबान खोले ,
मेरे लश्कर को इक पल देखकर दुश्मन का मन डोले ,
वह ऐसे छायेंगे उनपर पड़ें ज्यों खेत में ओले ,
अदब के खून से शमशीर आज अपनी निखारूंगा ,
मिटाकर इनकी हस्ती आकबत अपनी संवारूंगा ।
( १२ )
सुनी बात धरत की ऋषि की बांध गई हिम्मत ,
मुझे तो आपकी बातों से राजन मिल गई ताकत ,
करूँ मैं सामना दुष्टों का मुझ में है कहाँ जरायत ,
न मुझको चाहिए लश्कर न मुझको चाहिए दौलत ,
मुझे तो राम -लक्षमण चाहिए ये मेरे बाजू हैं ,
यही दुष्टों के हैं नाशक यही केतु व राहू हैं .

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