गुरुवार, 12 अगस्त 2010

रामायण -31

( ५५ )
ये सुना तो राम ने यों कहा मेरी जान हाजिर है में जान ,
मुझे साथ लेने में आर क्या कि है जब तुम्हारा ही चाहे मन ,
यही राजा तो चले चलो कि है वन ही अपना तो अब वतन ,
मुझे हुकुम बाप अजीज है यही यही दौलत और यही मेरा धन ,
मेरी क्या शक्ति कि मैं हुकुम दूँ मेरा हौसला कि मैं टाल दूँ ,
मेरे साथ चलने की चाह है तो मैं कैसे तुम को नहीं कहूँ ।
( ५६ )
गए राजा दशरथ के पास फिर श्री राम सीता व लक्ष्मण ,
कहा कैकेई ने कि - आओ यहाँ हुए अब तो जोगी हो जाने मन ,
ये जो वस्त्र हैं ये उतार दो कि हो जोगियों की तो अब फबन ,
ये ही वस्त्र तुम्हारे ही वास्ते ताकि मन हो जैसा हो वैसा तन ,
उन्हें हुकुम दे के कहा मानो यही याकबत की तो राह है ,
तुम्हीं लाज रखोगे बाप की यही तुम्हारे वालिद की चाह है ।
( ५७ )
ये सुना तो वस्त्र बदल लिए नहीं दिल में उनके था रंज कुछ ,
यही उनके लब पे था आखिर से नहीं चाहिए हमें कंज कुछ ,
नहीं इश्क हशरत की चाह कुछ नहीं नियामतों का है रंज कुछ ,
हमें हुकुम वालिद अजीज है यही नुक्ता समझेंगे संज कुछ ,
खुली आँख दशरथ की रो पड़े कहा एक ही को था रो रहा ,
मुझे रंज तिगुना तू दे रही मुझे कैकेई ये क्या हो गया ।
( ५८ )
मेरा राम जिस्म की रूह है वह गया तो रूह निकल गई ,
मेरी सीता घर की है लक्ष्मी वह गई तो रूठेगी लक्ष्मी ,
मेरे लक्ष्मण से ही रौनकें हैं बसे उसी से अवधपुर ही ,
चले आज तीनों ही छोड़कर तुझे क्या हुआ अरी कैकेई ,
मैं तो लुट गया मैं तो मर गया मेरा नूर आँखों से छिन गया ,
मुझे इश्क से क्या है वास्ता मुझे तख़्त व ताज से क्या मिला .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें