रविवार, 1 अगस्त 2010

रामायण -7

( २५ )

तकलीफ बर तरफ करके ऋषि दरबार में पहुंचे ,
ज्यों ही देखा जनक जी ने स्वागत के लिए दौड़े ,
जनक बोले -जाहे किस्मत हमारे भाग भी जागे ,
कुशल पूछी ऋषि जी ने जनक इक बारगी बोले ,
इनायत है करम है खैरियत है मेहरबानी है ,
यहाँ तो आपही के फैज का सब दाना पानी है ।

( २६ )

तारुफ़ फिर कराया राम लक्ष्मणका जनक जी से ,
पकड़ कर हाथ दोनों का ऋषि हँसते हुए बोले ,
" अवध के दुलारे हैं ये दशरथ के हैं उजियारे ,
यही राम लक्ष्मण जिनको शत्रु देखकर भागे ,
इन्हीं से दरहकीकत सोता सुषमन का नसीबा है ,
हमें ये मांस के पुतले कि सम्स हैं अजूबा है ।
(२७ )
मैं इनको साथ लाया हूँ हमारी हो गई रक्षा ,
हुआ है यज्ञ सम्पूर्ण कि जैसे मिल गई भिक्षा ,
इन्हीं से मिल गई है दुश्मनाने कौम को शिक्षा ,
अभी तक फिर रहा है सामने किरदार के गाजी ,
इन्हीं के बल पे हम जीतेंगे आखिर धरम की बाजी ।
( २८ )
अदब से फिर किया प्रणाम दोनों ने जनक जी को ,
ऋषि की बात सुनते ही हुए बेखुद जनक जी तो ,
कहा दिल में - मेरे भगवन ये जोड़ी तो मुझे दे दो ,
मेरी दौलत मेरी शोहरत मेरी हसमत भले ले लो ,
खलूस और अज्ज की ये इल्तजा टालीनहीं जाती ,
निकलती है जो दिल से बात वह खाली नहीं जाती .





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