रविवार, 1 अगस्त 2010

रामायण -4

( १३ )
सुना इतना तो दशरथ जी का आखिरकार मन डोला ,
होश के पाँव फैले मोह ने भी अपना मुंह खोला ,
जो कहना था उन्होंने कह दिया मुंह में न कुछ तौला ,
ऋषि के कान में इस बात ने मीठा जहर घोला ,
ये अपने नैन तारे में आपको दे दूँ क्यों दे दूँ ?
मुसीबत इक नई मैं मोल भी ले लूँ तो क्यों ले लूँ ।
( १४ )
यही लाडले मेरे यही मेरे प्यारे हैं ,
यही अंधे की लाठी हैं यही आँखों के तारे हैं ,
यही हैं आखिरी पूँजी यही मेरे सहारे हैं ,
इन्हें जतनों से पाया है अवध के दुलारे हैं ,
वनों में किस तरह नाजों के पालों को मैं भेजूंगा ,
इन्हें मैं खुद ब खुद क्यों मौत के मुंह में धकेलूंगा।
( १५ )
सुना जब महर्षि ने यह तो फ़ौरन तिलमिला उठे ,
अचानक राम -लक्ष्मण खेलकर दरबार में आये ,
झपकते ही लपक जा कर पिता की गोद में बैठे ,
कभी मूंछों से वह खेलते कभी दाढी से वह खेले ,
गुरु बोले -" ये बंधन आरजी होते हैं उल्फत के ,
त्यागो मोह माया तोड़ दो बंधन मुहब्बत के ।
( १६ )
गुरु बोले - जमाने की हवा इन को भी लगने दो ,
इन्हें भी जिन्दगी की धुप -छाँव में निखारने दो ,
ज़रा संयम की भट्ठी में इन्हें भी आज तपने दो ,
बनाना है इन्हें कुंदन ऋषि के साथ जाने दो ,
इन्हीं की वीरता के सारी दुनिया गीत गाएगी ,
यही दौलत यही पूँजी ही आखिर काम आएगी .


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