बुधवार, 11 अगस्त 2010

रामायण -28

( ४३ )
ये सुना तो राम ने यों कहा - मेरी जान तुम हो निढाल क्यों ,
मेरे प्यार का तुम्हें वास्ता कि दिल को आखिर मलाल क्यों ,
कि है इश्क मेरी भी जिन्दगी कि है उलटी -उलटी ये चाल क्यों ,
मुझे हाले दिल तू कहो ज़रा कि आज शीशे मैं बाल क्यों ,
यों ही चुटकियों में कटेंगे ये कि हैं साल चौदह मुख़्तसर ,
यहाँ दौलतें हैं यहाँ शरबतें कि नहीं यहाँ तुम्हें कुछ खतर ।
( ४४ )
मेरी जान जंगल में मत चलो कि हैं रास्ते में मुसीबतें ,
नहीं इशरतें नहीं नियामतें कि वहां तो सिर्फ हैं आफतें ,
नहीं सेज फूलों की है वहां नहीं अपने देश की सी राहतें ,
कि वहां है इंसान जानवर कि नहीं यहाँ की सी चाहतें ,
मेरी जान राहों में खार हैं बड़े टेढ़े मेढ़े हैं रास्ते ,
कभी गरम हैं कभी सर्द हैं नहीं दिन वहां के हैं एक से ।
( ४५ )
है बजा तुम्हें के रहो यहाँ कि करो सेवा अम्मा और बाप की ,
वहां हर कदम पर हैं खिदमतें यहाँ पाँव धोतो हैं हर ख़ुशी ,
कि हो जब तबियत उदास तो चली जाना फ़ौरन जनकपुरी ,
वहां हर कदम पर मुसीबतें यहाँ ऐश व इशरत की जिन्दगी ,
वहां घास खाने को है फकत यहाँ हर किस्म की हैं नियामतें ,
यहाँ खूब अच्छे लिबास हैं वहां तन के ढकने की आफतें ।
( ४६ )
ये सुना तो सीता ने यों कहा - मुझे सदका आपकी जान का ,
नहीं हर्ष माल व मनाल की मुझे आप ही का है आसरा ,
मेरी नाव डूबी बचाइये किहैं आपही मेरे ना खुदा ,
मैं तो ज़िंदा आपके दम से हूँ नहीं ऐश व इशरत को दिल दिया ,
नहीं नियामतों की है चाह कुछ नहीं सेज फूलों की चाहिए ,
नहीं शरबतों पे है जान दी मुझे राह काँटों की चाहिए .

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