रविवार, 12 सितंबर 2010

६९-रामायण

          ( २१ ) 
राम के पाँव तो अब तू जा के पड़ ,
छोड़ दे अब तू बेखबर अपनी अकड,
पाप अगर बख्शवाने हैं जाकर झगड़ ,
वरना जाएगा तेरा नसीबा बिगड़ ,
जानकी अब भी लौटा दे तू राम को ,
मौक़ा नादिर है तू इस को नाहक न खो .
          ( २२ ) 
जैसी सूरत है वैसी ही सीरत तेरी ,
बात  अच्छी न निकलेगी मुंह से कभी ,
बचपने ही से नीयत है बिगड़ी हुई ,
जिन्दगी भर न की बात भी काम की ,
छोकरों के मैं आगे झुकूं  भी तो क्यों ,
आस्ती जोगियों से करूँ भी तो क्यों .
        ( २३ ) 
जूठे टुकड़े चबाना है सेवा तेरा ,
सहब्ते बाद उठाना है सेवा तेरा ,
मुफ्त नादान  बनाना  सेवा तेरा ,
धोंस झूठर  दिखाना है सेवा तेरा ,
मैं ठगों को कभी मुंह लगाता नहीं ,
भीख तो मांगने से मैं देता नहीं .
        ( २४ ) 
अपने मून ह से न बन आप मियाँ मिट्ठू ,
मुझको मालूम है तेरी आदत व खू ,
खुद ही जाकर हरी राम जी की बहू ,
ठग औरों को नाहक बताता है तू ,
आइना यों न नाहक किसी को दिखा ,
तू गरेबान में दाल अपना मुंह तो ज़रा 

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