गुरुवार, 2 सितंबर 2010

३७-रामायण

                                         ( ७९ )
ये सुना भरत ने तो यों कहा -मेरी मां नहीं है तू राक्षसी ,
मुझे कतल करती तो दुःख न था ये तो हक़ है रहती तू बाँझ  ही ,
तू ये राजपाट को फूंक दे तू तो अंधी मोह में हो गई ,
मैं तो वन में जाउंगा आज ही मेरा फैसला है ये आखिरी ,
ये तो हक़ है राम से भाई का की मैं हक़ उन्हीं का छीन लूं ,
है ये राजपाट तो चीज क्या मैं तो उन पे जान भी वार दूं .
                                         ( ८० ) 
मुझे छोड़ कर कहाँ चल दिए मेरी रूह और मेरी जान थे ,
मुझे आप ही से जहां था कहाँ आप रुखसत हो गए ,
मुझे साथ अपने ही ले चलो जहां आप वालिद चल दिए ,
मुझे आप ही का था आसरा मुझे आप धोखा ही दे गए ,
मुझे सब ही कहते हैं सबर कर मेरा दामने दिल छूट गया ,
मुझे काफले की तलाश थी वही काफला मेरा लुट गया .
                                           ( ८१ ) 
गए फिर कौशल्या के पास वह कहा - पाप मेरे तू वक्श दे,
जो सजा भी दे वह कबूल है की गुनाह मैंने बहुत किये ,
मेरे होते दुःख भी उठाये हैं मेरे होते जख्म बहुत सहे ,
श्री राम चन्द्र का हक़ मैं लूं तेरे तख़्त व ताज को फूंक दे ,
ये थे शब्द भरत ने जब सहे गिरे अश्क आँख से फिर मन ,
गिरे फिर वह फ़ौरन ही पाँव में कहा मैं तो जाउंगा आज वन .
                                           ( ८२ ) 
मुझे राम चन्द्र अजीज हैं नहीं तख़्त व ताज की चाह कुछ ,
मुझे प्यार राम का चाहिए नहीं चाहिए मुझे आह कुछ ,
मुझे इश्रतों की नहीं हवस मुझे चाहिए नहीं जाह कुछ ,
मुझे सूझता नहीं कुछ भी अब तू ही बता अब मुझे राह कुछ ,
लिया उसको सीने से फिर लगा कहा जानेमन न उदास हो ,
तुम्ही मेरे दिल का सुकून हो तुम्हीं मेरे दिल की तो आस हो . 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें