मंगलवार, 14 सितंबर 2010

७८-रामायण

                ( २५ ) 
ये रास्ता है पाप का तू राह पाप की न चल ,
गरूर से मिलेगा क्या गरूर जाएगा निकल ,
ये बल निकल ही जायेंगे लगे न इनको एक पल ,
न बैर से मिलेगा कुछ की प्रेम ही सदा सबल ,
तू पैर राम के पकड़ ये इल्तजा है बा रहा ,
तू याक्बत संवार ले तू किस तरफ है जा रहा .
                 ( २६ ) 
ज्यादह बात मत बना ऊ बोल दे ये राम से ,
मैं जानकी को छोड़ दूँ ख्याल वह ये छोड़ दे ,
है जिसमें जोर और बल वाही सिया को ले भी ले ,
मामले हैं जंग के हैं जंग ही के फैसले ,
मैं जानकी न दूंगा यों इसी में मेरा मान है ,
इसी में मेरी शान है यही तो मेरी जान है .
                 ( २७ ) 
सुना ये फैसला ज्यों ही तो दूत वां से चल पडा ,
कहा ये जाके राम से की जंग का है फैसला ,
तो फिर सभी ही चल पड़े की जंगी की थी इब्तदा ,
किसी के हाथ में कमान  किसी के पास संग था  ,
किसी के पास गुस्सा था किसी के पास तेग थी ,
किसी के पास बलोले किसी के पास थी ख़ुशी .
                 ( २८ ) 
वह काफले में चल रहे रवां उवां रवां दवां ,
थे जामवंत नील नल थी जिन के हाथ में कयां ,
की भक्ति और श्रद्धा का बंधा हुआ था इक समां ,
की लंका की ओर चले कसां रवां रवां ,
खबर मिली लंकेश को की फ़ौज राम की चली ,
की चलते -चलते आखिर से वह लंका ही में आ गई .

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