गुरुवार, 16 सितंबर 2010

८७-रामायण

             ( ५ ) 
चन्दन की लकड़ी घी में डूबी जल्दी आग पकडती है ,
आग और घी में मेल नहीं है आग ही घी से लडती है ,
राख हुआ मैं उड़ जायेगी हवा कहाँ अब उडती है ,
अपना प्रेम बसे जहां पे  आँख वहीँ पे  गड़ती है ,
वायुमंडल महकेगा जब भाग मेरे भी जागेंगे ,
इसी बहाने राम मिलेंगे दिल के गम सब भागेंगे .
                ( ६ ) 
भाग हैं अपने मंदे मंदे पाँव में लेकिन मोच नहीं ,
भाई बन्धु और भ्राता बिछुड़े तो संकोच नहीं ,
सीता मां और लखन को देखूं मेरे भाग में लोच नहीं ,
राम को गर मैं पा न सकूँ तो फिर भी दिल में सोच नहीं ,
मेरी देह का इक इक फूल ही खेती के काम आयेगा ,
सांस हर इक पहुंचेगा अभ में और बरखा बरसायेगा .
               ( ७ ) 
रघुवंश के भरत लाल जी रो रो चेहरा धोते थे ,
तन मन उनका थर थर काँपे दिल का धीरज खोते थे ,
अवधपुरी के नर नारी भी अंसुवन हार पिरोते थे ,
दिल की कलियाँ मुरझाई थीं गम के कांटे बोते थे ,
ज्यों ही दागी चिता भरत ने हनुमान जी आ पहुंचे ,
लेकर वह सन्देश राम का नंदीग्राम में जा  पहुंचे .
                ( ८ ) 
भरत लाल को देखा ज्यों ही आगे बढ़कर की दंडवत ,
बोले एक मिनट की डेरी से आ जाती बन्धु मौत ,
दुनिया सारी  मुझको कहती मुझ पर आती हरिक सौत ,
मेरी रूह भटकती रहती सुनता मैं किस किस की चौत ,
तुमसे राम का ह्रदय धडके राम से प्रजा जीती है ,
प्रजा से ये बसे अयोध्या स्वर्ग को जिससे प्रीती   है .

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