बुधवार, 15 सितंबर 2010

८०-रामायण

              ( ३३ ) 
वह दनदनाता चल पडा की वह तो इन्द्रजीत था ,
की दिल में इक उमंग थी की दिल में इक था बबूला ,
वह खेल था समझ रहा की वह भी तो था सूरमा ,
वह फ़ौज ले के अपनी फिर तो यद्ध ही में आ दाता ,
है कौन मां का लाल ये कहा ज्यों ही पुकार के ,
तो एक पल में लक्ष्मण मुकाबले को आ गए .
               ( ३४ ) 
हर इक सिपाही लैश था दिलों में इक तरंग थी ,
की जीतने की चाह थी यही तो इक उमंग थी ,
ये गुरेज तीर तेग ढाल तेजे ही की जंग थी ,
की हक़ की थी जमीं बसमा जमीं रिया की तंग थी ,
हुआ तभी मुकाबला घोर युद्ध छिड़ गया ,
जमीं फलक से मिल गई फलक जमीं से मिल गया .
                ( ३५ ) 
उसी समय ही मेघनाथ मौक़ा देखकर बढ़ा ,
चलाई उसने शक्ति आई लक्ष्मण को मूर्छा ,
उसी समय ही राम चन्द्र जी को गम हो गया ,
तो लाये उनको कैम्प में लहू लुहान जिस्म था ,
ज्यों ही ये देखा राम ने तो अश्क आये आँख में ,
कहा की हाय लक्ष्मण ये अश्क आँख से बहे .
               ( ३६ ) 
मुझे भी साथ ले चलो कहाँ अकेले चल दिए ,
कहाँ का बोलो प्रेम है की साथ छोड़कर चले ,
ये जिन्दगी न चाहिए की मौत आये अब मुझे ,
नसीब ही मेरा बुरा की आ गए हैं दिन बुरे ,
लखन भी साथ छोड़  कर चले चली गई मेरी सिया ,
बुला ले मुझको ए खुदा यही है तुझसे इल्तजा               

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