शनिवार, 11 सितंबर 2010

५८-रामायण

                 ( ९ ) 
वह थी अबला कर रही थी बहुत आह व बुका ,
दे रही थी वास्ता वह दर हकीकत राम का , 
उस की हालत पर न आई उस जफा जू को दया ,
वह तो भगवन कबर और नाखूत की मद में चूर था ,
देखते ही चंद जेवर बंध गई ह्रदय की पीर ,
आ गए आँखों में आंसू दिल हुआ बेहद अधीर .
                ( १० ) 
राम बोले लक्ष्मण इन जेवरों को देख लो ,
मुझको लगता है कहीं ये खेल कुदरत का न हो ,
आँख कान और नाक के जेवर हैं ये आगे बढ़ो ,
हाथ पाँव के यहाँ हैं क्या अजी कुछ तो कहो ,
लक्ष्मण बोले उन्हें पहचानना  आसान नहीं ,
मेरी नजरें तो सदा सीता के चरणों में रहीं .
                 (११ )
मैंने देखा है हमेशा उनमें मां  का असल रूप ,
मुझमें ताकत है कहाँ देखूं जो मैं चेहरा अनूप ,
कह नहीं सकता है कहीं उनके मुखड़े की धुप ,
मेरी उल्फत में मिलेगा आपको श्रद्धा का रूप ,
सबह उठते ही चरण छूता था सीता के सदा ,
इसलिए बिछुवे वहीँ हैं खूब हूँ पहचानता .
                 ( १२ ) 
यों तारुफ़ राम इक दुसरे से हो गया 
एक पल में भेद और तख्रीक का पर्दा उठा ,
दिल हर इक ने अपना खोल कर फिर रख दिया ,
बेतकल्लुफ हो के कहदी सबने विपदा की कथा ,
और फिर सुग्रीव ने कर दी हकीकत यों बयां ,
अश्क आँखों से गिराकर गम किया अपना यान 

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