मंगलवार, 14 सितंबर 2010

७३-रामायण

             ( ५ ) 
ये मुझसे बात ही न कर की जानकी को छोड़ दूँ ,
ये खुद ही मेरा धरम है मैं बात अपनी तोड़ दूँ ,
है कौन मेरी जिन्दगी में कॉल ही को मोड़ दूँ ,
की जान बूझकर बता मैं भाग अपने फोड़ लूँ 
तू कान खोल कर ये सुन यही मेरा असास है ,
न जायेगी कहीं सिया की सांस ही में आस है .
             ( ६ ) 
है एक दिन का वाकया विभीषण का गए मन ,
उन्होने बात हक़ की  की तो जल उठा तन बदन 
उन्होंने लात खाई जब तो रो उठा उनका मन ,
उन्होंने लंका चुद दी लगा न उनको एक छान ,
था राम जी जा आसरा वह राम द्वारे आ गए ,
गले लगाया राम ने की मित्र राम के बने .
           ( ७ ) 
हुआ ये फैसला तभी की जाए फिर से इक सफीर ,
कहे यही की मान जा नहीं तो डंडा सबका पीर ,
फसाद मोल ले न तू की बन जा अब तू सबका वीर ,
इसी में है भला तू वरना आँख में भरेगा नीर ,
हुआ ये फैसला की अंगद आज अभी रवाना हों ,
सुना ये हुकुम चल पड़े की मौक़ा खोऊं अब मैं क्यों .
         ( ८ ) 
गई खबर की एक दूत द्वार पर खडा है सह ,
की राम का मैं दूत हूँ यही रहा है वह तो कह ,
मिला ये हुकुम भेज दो की देखें कौन सी है रह ,
उसी से वह आ गए कहा है राम मेरा सह ,
ये राम का पैगाम है की जिद अब अपनी छोड़ दो ,
ये हक़ की बात आज सुन की दोस्ती चली चले .

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