मंगलवार, 14 सितंबर 2010

७५-रामायण

           ( १३ ) 
सुना ये बाली पुत्र ने कहा तभी था यों मन ,
मुझे न ऐश चाहिए मुझे न चाहिए ये धन ,
न इश्रतों की चाह है न हुश्न की मुझे लगन ,
मुझे तो राम मिल गए वही हैं तन वहीँ हैं मन ,
मेरे पिटा की बात क्या मना तू अपनी खैर ही ,
कहीं तुझे डुबो न दे तेरी अकाद तेरी खुदी .
             ( १४ ) 
है वक्त कीमती बहुत टप्प फायदा उठा ज़रा ,
तू जानकी को छोड़ दे है आस्ती में फायदा ,
भला तेरा इसी में है यही है मर्ज की दवा ,
तू जिद ये अपनी छोड़ दे की जिद में है पडा ही क्या ,
पकड़ ले पाँव राम के तू याक्बत संवार ले ,
तू अहद रफ्ता भूल जा मिले नहीं गया समय .
              ( १५ ) 
ये आख़िरी बार ही तू हाथ मॉल के रोयेगा ,
ये याक्बत की फिकर कर की अश्क चेहरा धोएगा ,
तू खुद तो डूब जाएगा की सब को ही डुबोयेगा ,
अभी है फूल राह में तू खुद ही खा बोयेगा ,
अगर रविस यही रही तो देख धोखे खायेगा ,
तू जिस को अपना कह रहा है ख़ाक में मिल जाएगा .
                ( १६ ) 
ये बात है पते की सुन तू जिद अपनी छोड़ दे ,
जो चापलूस हैं तेरे तू उन से रिश्ता तोड़ ले ,
सूनी ये बात दूत की तभी कहा लंकेश ने ,
की राम जैसे छोकरे से हैं पानी मेरा भर रहे ,
ये छोकरे हैं बात इन से करना की सरेशान है ,
बराबरी की चोट हो उसी में आ न   बान  है .

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