मंगलवार, 14 सितंबर 2010

७४-रामायण

          ( ९ )
मैं पूत बाली वीर का किष्किन्धा मेरा धाम है ,
मेरे चाचा सुग्रीव हैं की अंगद अपना नाम है ,
हूँ दास राम चन्द्र का वही मेरा इमाम है ,
यही अर्ज कर रहा हवस गुनाह का नाम है ,
की राम ही रहीम है की राम ही करीम है ,
भलों का वह नदीम है बुरों का वह गनीम है .
                ( १० ) 
ये मौक़ा आख़िरी है अब तू कहना मेरा मान ले ,
तू हट से अपनी बाज आ ये जिद तू अपनी छोड़ दे ,
तू राम को न तंग कर मुबादा तू ही दुःख बहरे ,
तू जानकी को छोड़ दे तू पाप अपने सर न दे ,
तू पाँव राम के पड़े इसी में है भला तेरा ,
ये वक्त की पुकार है तू सोच ले भला बुरा .
               ( ११ ) 
तू पुत्र बाली वीर का  ?मुझे तो अब पता लगा ,
तभी उसने मेरी दोस्ती की वह तो मेरा मित्र था ,
सुना की मारा राम ने मुझे बहुत ही दुःख हुआ ,
फरेब और मक्कारी से चाचा ने राज ले लिया ,
तुझे मिली है चाकरी तू चाकरी ये छोड़ दे ,
तू दोस्ती जहां के फरेबिओं से तोड़ दे .
              ( १२ ) 
तू छोड़ दे ये चाकरी मेरे ही पास रह सदा ,
मैं तुझको दूंगा दौलतें करूंगा मैं तेरा भला ,
ये इश्रतों की कान है मैं नियामतों का हूँ  खुदा ,
कमी है कुछ मेरे यहाँ मेरे हैं जेर देवता ,
यहाँ शराब व नाच है यही है लेकर बाव की ,
यही कान हुश्न की की धूम है शबाब की .

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