गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

प्यास होंठों पै हरदम ही प्यासी रही

प्यास होंठों पै हरदम ही प्यासी रही , इन निगाहों में ठहरी उदासी रही ।
टीस सी एक महसूस होती रही ,बात दिल में चुभी जो जरा सी रही।
हाथ अपना बढ़ा कर जो पकड़ी ख़ुशी ,दरम्यां उँगलियों के हवा सी रही।
मैं मनाता रहा हर तरह से उसे , एक वह थी जो मुझसे खफा सी रही ।
इस कदर चोट पे चोट मिलती रही , चोट ही चोट पै इक दवा सी रही ।
भूल सकता नहीं मैं उसे उम्र भर , मुस्कराहट जो मोनालिसा सी रही ।
इन्तहा उसकी नफरत की ना पूछिए , बददुआ भी मिली तो दुआ सी रही ।
काश कोई बता दे मुझे ये जरा , जिन्दगी किसलिये इक सजा सी रही ।

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