रविवार, 25 अप्रैल 2010

भूले से भी

काश कभी तुम मुझे देखते भूले से भी आकर के।
तुमने कितने दर्द दिए हैं प्यार मिरा ठुकरा कर के'
सारी-सारी रात जगता हूँ तेरी तस्वीर लिए,
और तड़पता हूँ बिस्तर पर उलट-पुलट बल खाकर के।
दिन भर भटका करता हूँ में शहर की सूनी गलियों में,
शायद तुम मिल जाओ मुझको रस्ते में टकराकर के।
हर पल बढ़ता जाता है ये मेरे दिल का पागलपन ,
तुम्हें मनाता रहता है बस सौ- सौ कसमें खाकर के।
मैंने ऐसा कब सोचा था ऐसे भी दिन आयेंगे ,
खुद से ही हम हार चुकेंगे खुद को ही समझाकर के।
मुझसे गर तुम रूठे होते तुम्हें मना लेता भी मैं,
पर तुमने खुशियाँ चाहीं गैरों का साथ निभाकर के.

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