शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

हे पत्थर की देवी

बोलो मैं क्या करूँ समर्पित हे पत्थर की देवी।
छाले इतनेहैं कम होंगे तारे अम्बर के भी।
जिसने जीवन होम कर दिया करके पूजा अर्चन,
ओ ! निष्ठुर तुने उसको अभिशप्त जिन्दगी दे दी।
क़दमों में तेरे सर रखकर मैं कितना ही रोया,
पर न पिघला तेरा ह्रदय जलते अश्कों से भी।
क्यों था इतना प्रेम जगाया तूने मेरे दिल में,
कि अब पूंछ रहा हूँ परिचय अपना दर्पण से ही।
जाना ही था दूर अगर तो कुछ इसतरह से जातीं,
अपनी यादों को ले जातीं मेरे जीवन से ही।
अब जब जीना सीख लिया है मैंने तनहा रहकर ,
लेकिन बेगाना कर डाला है मुझको मुझ से ही.

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