गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

पहचान का खतरा

बढ़ गया है किस कदर पहचान का खतरा ।
शक्ल में इन्सान की इन्सान का खतरा।
काट डाले हैं सभी जो पेड़ जंगल के ,
है जमीं को आज रेगिस्तान का खतरा ।
आदमी फैला रहा जो बिष हवाओं में ,
जीव- जीवन के लिए है जन का खतरा।
जो न बदली आदमी ने आदतें अपनीं ,
सामने होगा खड़ा शैतान का खतरा।
किस तरह नदियाँ हमें अमृत पिलायेंगीं
है जिन्हें खुद आजकल बिषपान का खतरा।
हो रहे हैं रातदिन बिस्फोट धरती पर ,
क्यों न हो बिध्वंस के सामान का खतरा।
है बहुत नाराज अब नीला समुन्दर भी ,
है सुनामी मौत के फरमान का खतरा.

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