मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

जाने कैसी बस्ती है

जाने कैसे लोग यहाँ के जाने कैसी बस्ती है।
चुप - चुप रोये जहाँ मुहब्बत नफरत खुलकर हंसती है।
बंद घरों से ख़ामोशी का शोर सुनाई देता है,
सन्नाटे पर हरदम देखो छाई रहती मस्ती है ।
जाने पहचाने चेहरे भी अनजाने से लगते हैं ,
अपनेपन की एक झलक पाने को आँख तरसती है।
अपनी खुशियाँ अपने गम गुलजार दिखाई देते हैं,
यहाँ रातदिन खुदगर्जी की बारिश खूब बरसती है।
अगर भूलवश खिड़की कोई खुली कहीं रह जाती है,
डाहभरी नजरों की फिरतो होती रहती गश्ती है।
दिल के जज्बातों की कीमत थोड़ी सी भी यहाँ नहीं,
चांदीके सिक्कों की होती जमकर बुतपरस्ती है .

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