बुधवार, 9 जून 2010

काश कभी तुम

काश कभी तुम मुझे देखते भूले से भी आकरके .तुमने कितने दर्द दिए हैं प्यार मिराठुकराकर के।
सारी सारी रात जागता हूँ तेरी तस्वीर लिए, और तड़पता हूँ बिस्तर पर उलट पुलट बल खाकर के।
दिन भर भटका करता हूँ मैं शहर की सूनी गलियों में, शायद तुम मिल जाओ मुझको रस्ते में टकराकर के।
हर पल बढ़ता जाता है ये मेरे दिल का पागलपन ,तुम्हें मनाता रहता है बस सौ सौ कसमें खाकर के।
मैंने ऐसा कब सोचा था ऐसे भी दिन आयेंगे , खुद से ही हम हार चुकेंगे खुद को ही समझकर के।
मुझसे गर तुम रूठे होते तुम्हें मना लेता भी मैं, पर तुमने खुशियाँ खोजीं गैरों का साथ निभाकर के.

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