मत घोलिये आब ओ हवा में रात दिन काला जहर.कि साँस भी लेना हो मुश्किल आदमी को साँस भर।
जख्मी हुईं जिस रोज से ओजोन की मोटी परत,महसूस होती चांदनी भी जून की ज्यों दोपहर।
भूकंप.सूखा,बाढ़ ,रोगों की नई पैदायशैं, हर दिन बढीं आतीं हैं जानिब गाँव हो या हो शहर।
बनते रहे मरुथल हरे जंगल मुसलसल काटकर ,सोचो जरा होगा हमारा हश्र क्या कुछ है खबर।
रोकी नहीं जो गर अभी बढती मशीनी सभ्यता ,इक दिन यक़ीनन ढायगी सब पर क़यामत का कहर।
बारूद पर बैठा हुआ इन्सान जो सम्हला न तू ,हर तरफ शमशान होंगे या कि कब्रिश्तान भर।
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