गुरुवार, 17 जून 2010

कब तक साथ चलें

भूले बिसरे अफसानों से कब तक साथ चलें .आखिर हम तुम बेगानों से कब तक साथ चलें ।
मैखाने में बैठे हैं हम लब पर प्यास लिए, खाली- खाली पैमानों से कब तक साथ चलें ।
ऐसा हँसना भी क्या हँसना पलकें नम हो जाएँ ,फीकी -फीकी मुस्कानों से कब तक साथ चलें।
पंख लगा कर उड़ना चाहा हम तुम दोनों ने ,झुलसे -झुलसे परवानों से कब तक साथ चलें।
अपने हाथों तोड़ के अपना मंदिर चाहत का, उजड़े -उजड़े बुतखानों से कब तक साथ चलें ।
जनम -जनम के रिश्ते थे यों हम तुम दोनों में , अपने घर में मेहमानों से कब तक साथ चलें ।
भटकन ही भटकन है जिसमें मंजिल कहीं नहीं ,रेगिस्तानी मैदानों से कब तक साथ चलें ।
दूर -दूर तक जिसका कोई नाम - औ -निशां नहीं ,माजी की गुम पहचानों से कब तक साथ चलें .

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