गुरुवार, 17 जून 2010

अपना घर

जिसका अपना घर होता है ,उसे भला क्या डर होता है।
जब चाहे वह आये जाए ,खुला हुआ जो दर होता है ।
उसे नींद आ ही जाती है ,कैसा भी बिस्तर होता है ।
वह खुद ही होता है मालिक ,खुद ही तो नौकर होता है ।
चाहे हालत कैसी भी हो ,सीधा उसका सर होता है ।
वह नाचे या शोर मचाये ,खुद की मर्जी पर होता है ।
पर्दा हो या बेपर्दा हो ,भीतर का मंजर होता है
नहीं भटकता फिरता है वह ,जैसा इक बेघर होता है ।
इसी लिए इक घर का सपना ,लिए आदमी हर होता है ।
चाँद ,ईद का कहीं न निकले ,पर निकला छत पर होता है .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें