गुरुवार, 17 जून 2010

फिर वहीँ पै आ गया

कल जहाँ से था चला अब फिर वहीँ पै आ गया । ढूंढ़ता था मैं जिसे वो खुद के भीतर पा गया ।
मेरे जेहन में इरादा आसमां छूने का था ,पर सफ़र की धूप का टुकड़ा मुझे झुलसा गया ।
मुझको ताकत का पता वक्त की उस दिन चला ,बोलते ही बोलते जिस दिन जरा हकला गया ।
ये हकीकत यकबयक थी मेरे आगे खुल गई , दूसरों के मैं बनिस्पत खुद से धोखा खा गया ।
मैं समझता था जिसे अपनी मुहब्बत का सिला ,हाथ में जब कुछ न आया सर मिरा चकरा गया ।
एक मुद्दत से भटकता फिर रहा था प्यास ले ,चाँद आंसू क्या पिए लब पर समुन्दर आ गया ।
ये उदासी ,मुस्कराहट ,जिन्दगी का फलसफा , फूल मुरझाया कोई तो सब समझ में आ गया .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें