गुरुवार, 17 जून 2010

कितना परेशां था

मैं कितना परेशां था जब तक ना मिले थे तुम ।
इक गर्दिशे दौरां था जब तक ना मिले थे तुम ।
हिज्र की रातें थीं तन्हाई का आलम था ,
हर खाब बियाबां था जब तक ना मिले थे तुम ।
कब से भटक रहा था मजहब के जंगलों में,
राहें ना रहनुमां था जब तक ना मिले थे तुम ।
हर ओर बंदिशें थीं पहरे थे दायरे थे ,
ये प्यार बेजुबां था जब तक ना मिले थे ।
अपनी ही शख्सियत से अब तक था मैं नावाकिफ ,
हिन्दू या मुसलमां था जब तक ना मिले थे तुम ।
आया था किस जगह से जाना है किस जगह को ,
बातों का कारवां था जब तक ना मिले थे तुम

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